Friday, July 23, 2010

नहीं चाहिए मुझे निर्वाण

बुद्ध गौरव हैं भारत भूमि के,
वे ऐतिहासिक पुरुष नहीं,
एक "प्राज्ञं पुरुष" हैं,
स्वयं एक इतिहास हैं,
सृष्टि उनकी करुणा
का .......विलास है...


नहीं हूँ विरोधी बुद्ध का,
उनका 'शील' उनकी 'संयम',
उनकी 'वेदना' उनकी ' प्रज्ञा',
उनका 'बोध' उनकी 'समाधि',
बहुत - बहुत प्रिय है मुझे.
उनके 'चार आर्य सत्य''
उनका 'अष्टांग योग',
उपयोगी ही नहीं....
अनिवार्य तत्व हैं मानवता के.


अध्ययन किया है
उनके 'जीवन यान' का,
'हीनयान' और 'महायान' का भी.
खूब पढ़ा है - 'बोधि सत्व' को,
और नागार्जुन के 'शून्यवाद' को भी.
फिर भी क्यों...? आखिर क्यों..?
सहमत नहीं हूँ मैं, उनके प्रयाण से ...
उनकी परिकल्पना के 'निर्वाण' से.


जीवन तो एक उल्लास है,
इसमें शांति की सहज प्यास है.
.'निर्वाण' तो एक आभास है,
और 'लौ' तो स्वयं प्रकाश है.
कितने वे लगते हैं अच्छे,
जब कहते - "आपो दीपो भव".
चर्चा करते "बुझ जाने की"
तब विल्कुल बच्चे लगते हैं.


पूछता हूँ स्वयं से एक प्रश्न,
बार - बार फिर बारम्बार,
प्रत्युत्तर में कहीं दूर अन्तः से,
आती है एक स्पष्ट आवाज:
नहीं चाहिए मुझे 'प्रयाण',
यदि अर्थ है इसका बुझ जाना.
मैंने केवल 'लौ' को जाना.


आंधी और तूफ़ान में देखो,
"'लौ' को महूब लहराए दीपक,
बुझने से पहले भी देखो;
सौ - सौ दीप जलाये दीपक.
मुझको यह दीपक है प्यारा,
प्यारा इसका जलते रहना.
इस जलते दीपक की खातिर,
जन्म - मृत्यु सब कुछ है सहना.

Sunday, July 18, 2010

कैसे सुलझाऊ उलझन मन की

आखिर ऐसा क्यों होता है?
भार यह मन फिर क्यों ढोता है?
प्रिय की डांट भी लगती प्यारी,
प्यार भी उनका क्यों चुभता है?


प्रिय की कुटिल हास्य में बांकपन,
तकरार में लाड का रूप दीखता है,
उनकी स्नेहमयी वाणी भी आखिर,
दिल में तीर सा क्यों चुभता है ?


प्रिय की डांट से सुमन सा झरता,
निवेदन भी उनका कड़वा लगता,
दिल मेरा तो एक है फिर भी,
दोरंगी बात है वह क्यों करता?


क्या चिंतन है मेरा दोषपूर्ण?
या न्याय मेरा ही कलुषित है,
लेकिन अनुभूति की दर्पण ने,
क्यों दो - दो बिम्ब दिखाया है?


क्या दिल मेरा ही है बेईमान?
बेंच दिया जिसने अपना ईमान?
लेकिन बेईमान कहाँ करते हैं?,
इस तरह दिश अपना स्वीकार?


पक्ष - विपक्ष तो मैं ही हूँ खुद,
क्या न्याय स्वयं से कर पाउँगा?
कर न सका यदि न्याय स्वयं से,
तो नजरों अपनी ही गिर जाउंगा.

Saturday, July 17, 2010

हमें समृद्ध भारत चाहिए महाभारत नहीं

महाभारत, एक महाग्रंथ है :
जिसे सम्मान के साथ
कहा जाता है - " पंचम वेद " .
इस पंचम वेद में ज्ञान है,
विज्ञानं है, प्रज्ञान है, मनोविज्ञान है,
और कुछ लक्ष्य है, कुछ नीति है.
कुछ संधान है, कुछ स्याह है, कुछ रहस्य है,
कुछ रोमांच है, छल है, बल है तो 'गीता' रूपी
दिव्य प्रकाश भी है; जिसके दिव्य आलोक में
शेष सब पड़ जाते हैं, धूमिल और प्रभाहीन.


अनुसंधानों की कमी नहीं वहाँ,
सभी जुटे हैं किसी न किसी संधान में,
अपने निजी अनुसन्धान में.......,
इस बात से बेखबर, बेपरवाह कि
इसका अंतिम भविष्य क्या है?
क्या है इसकी उपयोगिता - उपादेयता?
समाज, संस्कृति और प्रकृति के लिए?

सोचिये! महाभारत का रूप क्या होता?
शांतनु का मन यदि विचलित न होता?
भीष्म ने पित्री भक्ति में प्रतिज्ञा की तो की,
परन्तु समय पर यदि समीक्षा किया होता?
कुंती ने ऋषि मन्त्र पर यदि विश्वास किया होता?
शंकालु हो, परीक्षण का दुस्साहस न किया होता,
कर्ण जैसी प्रतिभा को विवादास्पद बनाया न होता.
यदि गांधारी ने आँखों पर पट्टी बाँधी न होती?
राज्य प्रबंधन में ध्रितराष्ट्र का हाथ बंटाया होता?
पति के भटकाव पर यदि सन्मार्ग दिखाया होता?


इन सबके बावजूद यह इतना विभत्स न होता,
आखिर शकुनी जैसों का बहन के घर क्या काम?
विदेशी कोई भी हो अंततः विदेशी ही होता है,
चाहे वह शकुनी हो, एंडरसन हो या कोई अन्य पर्सन.
ध्यान रहे जब भी बाहरी व्यक्ति अत्यधिक सम्मान पायेगा,
एक दिन घर पर / समाज पर धुँध बनकर छा जायेगा.
सच मानिये, महाभारत का है जो भी स्याह पक्ष ,
कुटिल, धूमिल विभत्स और विकृत चित्र...........,
वह आया ही न होता, बद्नुमदाग बन छाया ही न होता,
यदि शकुनी जैसों का मान -सम्मान बढाया न गया होता.


लेकिन सोचिये ऐसा क्यों हुआ?
इसलिए की यह मानव स्वभाव है,
वह स्वयं को तुष्ट -संतुष्ट करना चाहता है,
उसकी अपनी व्यक्तिगत सोच और अरमान है.
उसका अपना निजी दर्शन और विज्ञानं है.
वह इतिहास से सीखता है और भूगोल बदलता है.
विज्ञानं में संशोधन परिवर्धन करता है.


लेकिन हमने इतिहास से नहीं सीखा,
फलतः भरत का भूगोल बदल गया है आज.
इतने सदियों बाद भी क्या हम उठ पायें है,
महाभारत कालीन कमजोरियों से?
यदि नहीं तो कब चेतेंगे?
यदि उसी परंपरा के संवाहक हैं अब भी,
तो क्या नए महाभारत का सृजन करेंगे?
अथवा अपना सुधार और परिष्कार करेंगे?
यदि अब भी न चेते तो इतिहास अपने को
दुहरा जाएगा और भारत का भूगोल
एक बार फिर बदल जायेगा.

सोचिये....सोचिये और हमें भी बताइये,
कुछ मार्ग तो दिखाइए, ध्यान रहे -
हमें समृद्ध
भारत चाहिए महाभारत नहीं.

वर्तमान क्या है, इसका मूल्य क्या है?

जिसे दी गयी है 'आज' की संज्ञा,
वह क्या है, समय का प्रवाह खण्ड?
भूतकाल की पश्चाताप ?
या वर्तमान की निराशा?
यह भविष्य की कल्पना है
या निरा स्वप्न?
भूत जो हमारे बश में नहीं,
जहाँ लौटना और लौटाना,
दोनों ही है अब तक असंभव.
परन्तु कल क्या हो पायेगा संभव?

और भविष्यत् क्या है?
एक स्वप्म, एक आशा;
या भूत का प्रायश्चित,
सुधार का एक अवसर?
प्रकृति का दिव्य उपहार?
या कृपा निधन की कृपा?

क्या यह आज असंतुष्टि और,
स्वप्न के बीच एक प्रत्याशा है?
या परीक्षा की एक घडी ?
जिसमे है मन और बुद्धि,
यथार्थ और आदर्श का द्वंद्व.

आज का अर्जुन तो व्यामोह में खड़ा है.
अभिमन्यु को रणक्षेत्र में क्या तब भी
जाने देता यदि स्वयं उपस्थित होता?
लेकिन इसकी आवश्यकता ही कब पड़ती?
तब क्या चक्रव्यूह भी रचा जाता? सभी ने
कल की प्रत्याशा में अपने आज को जिया था.
जो मन में आया विजय के लिए किया था.

तो क्या विजय ही है सर्वोच्च मूल्य?
क्या भरत का राज्य त्याग, उनकी हार है?
क्या भीष्म का प्राणोत्सर्ग उनका प्रायश्चित है?
क्या दधीचि का अस्थि दान उनका भय है?
क्या अनुसुइया का दुग्ध पान करना, पराजय है?
इनमे किसी को भी सत्ता तो महीन मिली,
गद्दी और राज्य तो नहीं मिला ?
तो क्या इनके कृत्य का कोई मूल्य नहीं?
आखिर निर्याय कौन करेगा?
कौन करेगा मूल्यों को परिभाषित?
हम, आप या आगामी पीढ़ी?
कौन ढोयेगा भूतकाल की सीढ़ी?

Wednesday, July 14, 2010

मूल्य औचित्य के प्रश्न का

औचित्य का प्रश्न ही
बनाता है मानव को संवेदी,
चिन्तनशील और विवेकी.
यही बनाता है मानव को,
महामानव और दिव्य मानव.
यह औचित्य का प्रश्न ही,
बनाता है व्यक्ति को चिंतक,
वैज्ञानिक, दार्शनिक और संत.


औचित्य का प्रश्न जहाँ
सार्थक है 'स्व' के लिए,
वहीँ उपयोगी है उतना ही
'सर्व' के लिए, 'समष्टि' के लिए.
औचित्य का प्रश्न मानव के,
विचार शक्ति और बोध की
अद्भुत अमूल्य निधि है.


औचित्य के प्रश्न के अभाव में,
हम हो जायेंगे पतित और दूषित.
बन जायेंगे मानव से दानव.
फिर यह औचित्य्का प्रश्न ही,
मार्ग और सन्मार्ग बताएगा,
दानव से मानव और देवत्व की,
उच्च कोटि तक पहुचायेगा.
इस प्रकार यह अमूल्य है..



Tuesday, July 13, 2010

वह कविता भी क्या कविता है?

जिस कविता में कोई होश नही,
जिस कविता में कोई जोश नही,
जिस कविता में कोई प्यास नही,
जिस कविता में कोई आस नही,
जिस कविता में कोई हास्य नही,
वह कविता भी क्या कविता है?


जिस कविता में अनुराग नही,
जिस कविता में है आग नही,
जिस कविता से हो विराग नहीं,
जिस कविता में कोई चिराग नही,
जिस कविता में कोई स्वाद नही,
वह कविता भी क्या कविता है?


जिस कविता में हो शक्ति नही,
जिस कविता में हो भक्ति नही,
जिस कविता में अनुरक्ति नही,
जिस कविता में अभिव्यक्ति नही,
जिस कविता से हो विरक्ति नही,
वह कविता भी क्या कविता है?


जिस कविता में कोई आह नही,
जिस कविता में कोई वाह नही,
जिस कविता में कुछ स्याह नही,
जिस कविता में कोई सुझाव नही,
जिस कविता में कोई सलाह नही,
वह कविता भी क्या कविता है?


जिस कविता में कोई रंग नही,
जिस कविता से उठे तरंग नही,
जिस कविता में जीने का नही,
जिस कविता में कोई उमंग नही,
जिसे पढकर हो कोई दंग नहीं,
वह कविता भी क्या कविता है?


जिस कविता में कोई जागृति नही,
जिस कविता की कोई आकृति नही,
जिस कविता की कोई स्वीकृति नही,
जिस कविता में हो प्रकृति नही,
जिस कविता झलके संस्कृति नही,
वह कविता भी क्या कविता है?


जिस कविता में व्याकुलता नही,
जिस कविता में आकुलता नही,
जिस कविता में अनुकूलता नही,
जिस कविता में चंचलता नही,
जिस कविता में समरसता नही,
वह कविता भी क्या कविता है?


जिस कविता में इतिहास नही,
जिस कविता में परिहास नही,
जिस कविता में उपहास नही,
जिस कविता में आकाश नही,
जिस कविता से हो प्रकाश नही,
वह कविता भी क्या कविता है?

माँ ने कराया सन्मार्ग का बोध

यूँ तो माँ को गुज़रे हुए
हो गए हैं, कई वर्ष .
किन्तु लगता है......,
वह है बहुत निकट.....,
यहीं कहीं, आस पास ही.


मनाता हूँ अब भी श्रद्धा से,
उसकी पुण्य तिथि प्रत्येक वर्ष.
जैसे कभी वह मनाती थी
मेरा जन्मदिन हर वर्ष.
हाथ जोड़कर, विनीत भाव में
मांगता हूँ,उससे सन्मार्ग,
आशीर्वाद और उत्कर्ष.


आज फिर उसकी पुण्य तिथि है,
उसके चित्र को झाड - पोंछकर,
फूलमाला से सजाकर रखा है,
उसी परंपरागत केक वाली चौकी पर.
समर्पित किया है - पुष्पं , पत्रं
और मधुरं उसे, श्रद्धा भाव से.
जलाया है दीप, चढ़ाया है चन्दन,
दिखाया है - अगरबत्ती औए धूप.


देखता हूँ; धूप के सुगन्धित धूम्र में,
माँ, आ खडी हुई है, लिपटी श्वेतवस्त्रों में.
अब दीख रही है माँ.., मेरी प्यारी माँ...
..अब साडी, उड़ रही है, हवा में धीरे ..धीरे...
माँ, हिला रही है ....हाथ; ...हौले....हौले.....
और अब विलीन हो गयी, हवा में...व्योम में....

हवा अब बदल गयी है, ..... मेघ....में,
मेघ संगठित होकर नभ में छा गया है,
हल्की, रिमझिम बूंदें बरसा गया है.
मेघ से तो बरसा था ......पानी;
पानी तरल था, .....बूंद रूप था,
पानी ठोस था, ...ओला स्वरुप था,
ध्यान आया सघन - संगठित
ओला ही तो है, हिमवान - हिमालय.

लगा सोचने, ..माँ तो ....गंधरूपी थी,
धूम्र बनी.., वायुरुपी थी.., जलरूप बनी .
तो क्या हिमनद रूप माँ का ही है ?
क्या ये नदियाँ..., दरिया.., ये झरने,
सब .....माँ का ही प्रवाह हैं.?

हां, तभी तो करते हैं,
पालन पोषण, माँ के समान.
और ये फलदार वृक्ष ?
ये ठूंठ ...सूखे ..से पेड़ ?
क्या इसने नहीं पाला है,
हमे माँ के समान ?
क्या इससे बने पलंग, कुर्सियां, ..
अनुभूति नहीं कराते, माँ की गोद का ?
दरवाज़े बनकर क्या नहीं करते सुरक्षा ?
छत बनकर क्या नहीं करते, हमारी रक्षा?

परन्तु, आश्चर्य है, यह बात पहली बार,
आज क्यों समझ में आ रही है?
क्योंकि, आज तुने सन्मार्ग पूछा है- माँ से.
प्रगति और उत्कर्ष का मार्ग पूछा है- माँ से.
माँ, अब सन्मार्ग दिखा रही है,
प्रगति का मार्ग बता रही है.
सबमें अपने अस्तित्व का बोध
करा रही है, मानो कह रही हो,
बेटे चित्र को छोड़ो , तस्वीर भूलो.
सृष्टि में मेरा ही रूप देखो, वही हूँ मैं,
वाही है मेरा रूप, मेरा स्वरुप....

सचमुच, देखता हूँ...........
यह जल अब पानी नहीं, 'माँ' है,
यह वायु अब हवा नहीं, 'माँ' है.
यह वृक्ष अब लकड़ी नहीं, 'माँ' है
यह अरण्य और आरण्यक,
ये सब कुछ और नहीं, 'माँ' है.
ये प्रस्थर...ये शैल..माँ है, माँ है.


अरे हाँ, तभी तो कहा गया है माँ को
"शैलपुत्री", 'शैलजा' और 'गिरिजा',
धर्म ग्रंथों में. यह हिमनद
"ब्रह्मचारिणी" के तप से है द्रवित,
स्नेह से है गतिमान,
माँ है - 'हिमाचल पुत्री', गिरिराज किशोरी.

अज्ञानता की जब तक है,
घनी धुँध छायी; वह 'क़ाली' है.
ज्ञानरूप जब चक्षु खुला,
देखा, अरे वह 'गोरी' है, 'गौरी' है.
चेतना हुई है अब जागृत,
माँ ने इसे कर दिया है- झंकृत.
सचमुच आज सन्मार्ग दिखाया है,
मुझे सत्य का बोध कराया है.

लेते हैं संकल्प अभी से,
संग तुम भी ले लो मेरे भाई.
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे -
"वायु प्रदूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे -
"जल को दूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे -
"ध्वनि प्रदूषित".
अब पेड़-पौध लगायेंगे,
इसकी संख्या बहुत बढ़ाएंगे.
माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे,
अब माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे.
हे माँ ! तुझे नमन,
तुझे वंदन, बहुत बहुत अभिनन्दन.