उठता है प्रश्न मन में कुछ ऐसा,
भारतीय चिंतन का प्रवाह है कैसा?
जब - जब सोचा बही उलटी धार
ले गयी खीच, यह बुद्धि जो अपनी
वैदिक-पौराणिक चिंतन बीच धार.
देखा मैंने वहाँ भौतिकवाद
जड़वाद के बीच अध्यात्मवाद.
इन वादों के बीच कुछ और वाद
अनीश्वरवाद - निरीश्वरवाद ..
आत्म-अनात्म, विकट द्वंद्व का
मंथन जो चला है, सुदीर्घ चला..
मिल गए इसमें अनेक विचार
कुछ अलग थलग भी पड़े विचार
फिर वाद-वाद की बातों में
अवसर आये हैं बहुत बार
तपोभूमि से राजभवन तक
हुए तर्क -वितर्क अनेक बार.
जडवाद की यात्रा मानव तक
उपलब्द्धि मानव की बुद्धिवाद.
बुद्धिवाद ले गया इन्द्रियभोग तक
हुआ सीमित मानव निजइन्द्रिय तक.
जब इन्द्रिय भोग ने बहुत सताया
बहुत.. नचाया, बहुत ही तड़पाया.
न जाने कितनी बार..एडियाँ..
रगड़ - रगड़ कर उसे रुलाया.
जब लगी ठोकर जागी मेधा
तन मन ने जाना तब स्वधा.
स्वधा ने ही फिर राह दिखलाई
तन माँ बुद्धि आगे बढ़ पायी.
मन बुद्धि से सूक्ष्म आत्म तत्त्व
सूक्ष्मतर उससे है- 'जगदात्मा'.
सूक्स्म्त तात्व जो मूल तत्त्व है
संस्कृति ने कहा उसे ही परमात्मा.
परमात्मा गति थी पूर्णता की
चरमोत्कर्ष उसका धनात्मक था.
था इसमें केवल सुख ही सुख
परमानन्द - आनन्दमहा था.
खो गयी चेतना इस आनन्द में
इतनी खोई की डूब सी गयी.
डूबे डूबे फिर जाने कैसे ऊब गयी?
इस चिति ने ही तब प्रश्न उठाई
आनन्द से बाहर खीच कर लायी.
आनन्द ही है जब परम शुभ
आया कहाँ से जग में अशुभ?
जब सत्ता केवल यह आनन्द
जगत में व्याप्त क्यों है अवसाद?
मानव मन में क्यों अनेक विषाद?
अवसाद विषाद यह किसकी देन?
अब उठो! जागो! न करो प्रलाप!
यह तो विषय है आत्म बोध का.
ज्ञान बोध का, सत्य बोध का.
मेधा की अपनी सीमा है
आगे उसके नहीं जा सकती.
है ज्ञान की अपनी शर्त अलग
"न मेधया न बहुना श्रुतेन.."?
दूसरा पार्श्व भी जानना होगा
अवसाद निवारण करना होगा.
तब इस बोध के कारण ही
हुआ अनुसन्धान यहाँ -
सत्यं शिवं और सुन्दरम का.
इस आनन्द के तीन है अंगम
है वह- 'सत्यं शिवं सुन्दरम'.
शिवं के लोप में यही बन जाता
विकृत - विभत्स - असुन्दरम.
शिवं तत्त्व है, लोक-कल्याण
विभु - व्यापक है, यह कल्याण.
छोड़ दिया आज इस पक्ष को हमने
खो दिया मूल को दम्भ में हमने.
पहले हुए हम भौतिक वादी
अब बन गए हैं इन्द्रियवादी.
इन्द्रिय ने हाहाकार मचाया
श्रृग से गर्त में हमें गिराया.
यही है भष्टाचार का कारण
दुराचार अनाचार का कारण.
भौतिकता उसका सिद्धांत पक्ष
इन्द्रियवाद पतन का कारण.
भौतिक पक्ष भी नहीं अचेतन
उसमे सुषुप्त चेतना, अवचेतन.
आनन्द नहीं सर्वोच्च उपलब्द्धि
यह बोध का केवल एक पक्ष.
आनंद तो सृजन का सर्वोच्च पक्ष
लेकिन जब सृजन नहीं, सर्जना नहीं
कोई क्रिया नहीं, कोई कार्य नहीं,
जानो, तब यह आनन्द भी नहीं.
सब शांत - विश्रांत - निष्क्रियता
संज्ञा इस अवस्था की 'शून्यता'.
इसका का अर्थ अस्त्तिवहीनता नहीं
है सब कुछ..., मात्र एक क्रिया नहीं.
सभी कार्य-क्रिया, आनन्द-विषाद
विलीन सभी इस शून्यता में.
इस सत्य को माना है सब ने
अध्यात्मवाद और भौतिकवाद ने.
सुखवाद और शून्यवाद ने.
लेकिन जब तक क्रिया जगत में
नाम - रूप - कृति फैला जग में.
आनन्द की सत्ता ही सर्वोच्च,
यही सत्य सनातन आत्मबोध.
सत्यं को शिवं बनाना होगा
सुदर्म धरा पर लाना होगा.
भारतीय चिंतन का यही सार,
अपना ले यदि जगत संसार,
सुखी - आनन्दित बने संसार.
विश्वबंधुत्व का यही आधार.
आइन्स्टीन और हाकिंग ने
बहुत हद तक इसे सुलझाया है.
एक समन्वय पुल भी बनाया है.
प्रज्ञान- विज्ञान का दायित्व यह
उसे ही मिलकर कदम बढ़ाना है.
मिटती मानवता को बचाना है
मानस को पहुचा अतिमानस तक
हाँ, दिव्य मानव उसे बनाना है.
हाँ, दिव्य मानव उसे बनाना है.
-डॉ. जय प्रकाश तिवारी