लखनऊ जं॰ का रेलवे प्लेटफार्म 4
ट्रेन की प्रतीक्षा, यात्री परेशान,
कुछ तो हैं हमे देख कर हैरान.
आखिर यह आदमी इतनी
देरसे क्या लिख रहा.......?
धीमे से एक बोला पता नहीं
यह मानव है या कोई 'भूत' ..?
इतनी गर्मी में भी ....
पड़ा नहीं अभी तक सुस्त.
मैंने दृष्टि उठाई और पूछा -
आदमी की परख होती है कहाँ?
बहुत अनुभवी था वह,
तपाक से बोला - 'ट्रेन में'.
वहीँ लग जाता है पता,
सब कुछ एकदम मुफ्त में.
कौन है कितना दयालु ?
कृपालु और समझदार ?
मैंने सोचा -
आदमी है यह समझदार,
ठीक ही तो कहता है -
बिलखते हुए बच्चों को
कितने हैं जो पिला देते है
अपने बोतल का पानी ?
शायद यह उनकी मजबूरी भी हो,
क्योकि यात्रा के समय
सबसे सस्ती और सबसे महँगी
यही चीज है - 'पानी'.
इस ट्रेन में कितनों की
पानी बचती है और कितनो की
उतरती है पल भर में,
कई बार इसे करीब से देखा है.
बात में बात मिलाकर वह बोला-
अरे साहब!
कुछ चुल्लूभर पानी को तरसते हैं
और कुछ उसी डिब्बे में,
चुल्लू भर पानी में डूब मरते हैं.
देखे हैं ऐसे-ऐसे शरीफ महानुभाव
जिनके बोतल की कौन कहे
नज़रों में भी पानी नहीं.
हैं वे 'इन्डियन साहब' ही ....
कोई विदेशी जापानी नहीं.
जिंदगी जीते हैं बड़े शान से
पड़े चाहे दस - बीस रोज...,
परन्तु होते कभी भी
पानी - पानी नहीं.
बड़े दिलचस्प लगते हो भाई!
करते क्या हो, मैंने पूछा?
बह बोला - पानी में रहता हूँ,
पानी भरता हूँ, पानी बेचता हूँ,
पानी चढ़ाता हूँ और यहीं खड़े खड़े
बड़ो - बड़ो की पानी उतारता हूँ.
मैंने कहा- अरे भाई! बस .बस...
सीधे ये क्यों नहीं कहते कि
मछुआरे हो जाल बिछाते हो,
यहाँ लोगों को फंसाते हो....
वह बोला - हाँ किसी हद तक...,
लेकिन मैं बंशी नहीं फंसाता,
छोटी मछली नहीं मारता,
मगर मच्छ मारता हूँ.
मछली से कहाँ खर्च चलेगा
इस बढती महगाई के युग में.
मैं कहा -
फिर नदी में जाओ यहाँ क्या काम?
वह बोला बड़े भोले हो साहब!
इतना भी नहीं समझते?
सब आप ही की तरह टूटी चप्पल वाले नहीं हैं.
यदि आप की जेब में अठन्नी के सिवा कुछ नहीं है
तो पूरी दुनिया को फ़कीर क्यों समझते हो?
मै स्टेशन पर ही रहता हूँ,
टिकट खिड़की से लेकर आठ - दस स्टेशनों की
सफ़र भी कर लेता हूँ इसी में
कहीं न कहीं मिल जाते हैं - 'मगरमच्छ'.
अरे साहब ! एक नहीं - 'अनेक'.
मैं भी कभी विश्वविद्यालय का छात्र था,
पी.जी. प्रथम श्रेणी में हूँ,
रिसर्च पूरी नहीं हुई ..
गाइड और हेड की खीच-तान में.
प्रातक्रिया वाद ने रंग दिखलाया,
जब संभला तो अपने को दलदल में पाया.
अब स्टेशन की ख़ाक छानता हूँ.
बहुत कलम चलाते हो साहब... !
कभी मेरे बारे में भी कुछ लिखना..
हो सके तो सरकार से कुछ कहना....
मैं लगा सोचने
आज देश की क्या दशा है?
आखिर मै क्या लिखूं...?
किसे लिखूं, कहाँ - कहाँ लिखूं..? .
उसी से पूछने के लिया सिर उठाया,
लिकिन वह स्वयं तो
नौ दो न्याराह हो गया और
मुझे एक कठिन प्रश्न दे गया,
मुझे मेरी औकात बता गया...
मुझे अपनी कलम और डायरी
के सहारे नितांत अकेला छोड़ गया.
डॉ जयप्रकाश तिवारी