हमलोगों ने प्रायः देखा है,
प्रहरीरूप में एक पुलिस वाले को;
कुछ चुस्त - दुरुस्त, सतर्क,
और कुछ अलमस्त.
हाथ में कभी बन्दूक, कभी
पिस्टल और कभी एक डंडा.
इनमे कोई है ..मुच्छड़,....
तो कोई ...निरा मुछमुंडा .
समाज में इनकी क्रिया कलापों के,
आलोचक तो बहुत हैं, समालोचक थोड़े,
परन्तु प्रेरक और प्रशंसक?
उनकी तो बात ही ना करो,
शायद समाधिस्थ है यह वर्ग आजकल?
फिर वही प्रश्न, आखिर
एक पुलिस वाला क्या है?
एक रोबोट या हाड़-माँस का लोथड़ा?
या कोई ऐसा व्यक्तित्व जो देकर
अपनी भावनाओं को तिलांजलि,
बना रहता है. खादीवाले के सन्देश और
हैटवाले के निर्देशों का मात्र अनुपालक?
जो खड़ा रहता है.. निरंतर, ...लगातार .....
तपती दुपहरी में, जाड़े की ठिठुरन भरी
सर्द रातों में, भींगते बरसातों में,
गरजते - कौंधते मेघों के नीचे.
अथवा कंट्रोलरूम में सामंजस्य बैठाते,
अधिकारियों - कर्मचारियों के बीच;
कण्ट्रोल टेबुल पर बैठा हुआ,
घिसता रहता है अपने.
तन... - बदन.... - मन... को.......
लगा रहता है त्रुटि रहित प्रसारण में,
समन्वय - समाधान बनाने में,
नीति - निर्देश, आदेश - सन्देश को
पढने और पढ़ाने में. लिखने और लिखाने में.
पुलिस लाइन से चौराहे, चौकी से थाने..
फल मंडी से, घासमंडी तक,
चिकित्सालय, विद्यालय से न्यायालय,
मदिरालय और वेश्यालय... तक.
चाय मंदिर से देव मंदिर.... तक.....
विस्तृत है जिका कार्य क्षेत्र.....
,
सडक पर पटकते डंडे से,
संभ्रांत नागरिक तो समझ जाते हैं,
इसके अर्थ को, इसके निहितार्थ को,
अपेक्षानुरूप करते हैं सहयोग भी .
परन्तु वही डंडा, .छिटक जाता है,
उस अनियंत्रित वाहन के टक्कर से,
जिसमे सवार हैं, समाज के नवोदित सेवक.
जिनके लिए सडक .और समाज के क़ानून..
को तोडना, शर्म की नहीं .......;
गर्व .....और ....गौरव... की बात है.
किस - किस जगह, कानून के रखवालों को,
कब, कहाँ, कैसे नचाया, कितना बेवकूफ बनाया,
और 'बड़ों' से शिकायत कर, कैसी उलटी फटकार
लगवाया, इसका गुणगान अपने आकाओं से करते हैं.
उदंडताओं की बढती संख्या, उन्हें इस क्षेत्र में,
डिप्लोमा और डिग्री धारक बनती है.
परन्तु एक पुलिसवाले को, ये घटनाएं ,
उसको अपनी हैसियत बतलाती है,
जब अपना पक्ष प्रस्तुतीकरण पर
फटकार ही प्रायः उनके हिस्से आती है.
क्या एक पुलिस वाले की
उसकी कर्त्तव्यपरायणता का,
कोई मान नहीं.........?
संवेदनाओं का भावनाओं का कोई मूल्य नहीं?
आखिर वह कब तक..... 'पी' से 'पोलाईट',
'ओ' से 'ओबीदिएंट बना रहेगा?
लायल्टी, ओबिदिएन्सी, चातुर्य, दक्षता,
साहस - शौर्य ....की, कोई कमी नहीं......
परन्तु, पुचकार, संश्पर्श, अपनत्व और
संरक्षण के अभाव में वह कब तक टिकेगा?
क्या यह विचारणीय बिंदु नहीं है?
'अर्ध सत्य' की कहानी
जब से दुहराया जाने लगा है,
उसका परिणाम निश्ठावानो पर
नजर आने लगा है.
कर्त्तव्यपरायणता, निष्ठां के बदले
मिली कुंठा, अब बाहर आने लगा है,
अपना विकृत रूप दिखाने लगा है.
कहीं का आक्रोश, ...कहीं...,
नजर आने लगा है.
कहर बनकर छाने लगा है.
'सौत का गुस्सा कठौत पर'
उतरने ....लगा ...है.......
सबल का गुस्सा निर्बल पर ............
परिणाम - कहीं थाने पर पिटाई,
कहीं मौत की घटनाएं......
आये दिन कहीं न कहीं
सभीको नजर आने लगा हैं.
केवल थाने पर ही नहीं, उनका गुस्सा
अब अपने बीबी - बच्चों पर भी
छाने लगी है. अब तो हद हो गयी.....,
उसकी अपनी गोली उसी की
कनपटी में सामने लगी है.
कोई यूँ ही तो जान नहीं देता ..
एक पुलिस वाले के लिए यह शर्म की बात है,
कानून के रखवाले को कानून हाथ में लेना,
बद्तोव्याघात है. स्वयं पर क्रूर आघात है.
परन्तु सबको सोचना होगा.......,
आखिर यह किसकी करामात है?
इसके पीछे किसका हाथ है ?
अपराधी को निलंबित, बर्खास्त करना,
समस्या का, समाधान नहीं.
मिटाकर अपराधी को,
अपराध मिटाया नहीं जा सकता.
न्याय देकर ही, है न्याय को पाया जा सकता.
घटना के पीछे कार्यरत
मनोविज्ञान को समझना होगा.
न्याय का देकर आश्वासन,
स्वयं भी खरा उतना होगा.
करना होगा विचार हमे,
फिर उन्ही तीन प्रश्नों पर -
दागदार खादी का रंग,
सफ़ेद क्यों है?
दिन रात सेवा में जुटे
खाकी का रंग मटमैला क्यों है?
और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी
सीमा पर डटे रहने वाले,
सैनिकों की वर्दी धब्बेदार क्यों है?
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