Saturday, July 17, 2010

हमें समृद्ध भारत चाहिए महाभारत नहीं

महाभारत, एक महाग्रंथ है :
जिसे सम्मान के साथ
कहा जाता है - " पंचम वेद " .
इस पंचम वेद में ज्ञान है,
विज्ञानं है, प्रज्ञान है, मनोविज्ञान है,
और कुछ लक्ष्य है, कुछ नीति है.
कुछ संधान है, कुछ स्याह है, कुछ रहस्य है,
कुछ रोमांच है, छल है, बल है तो 'गीता' रूपी
दिव्य प्रकाश भी है; जिसके दिव्य आलोक में
शेष सब पड़ जाते हैं, धूमिल और प्रभाहीन.


अनुसंधानों की कमी नहीं वहाँ,
सभी जुटे हैं किसी न किसी संधान में,
अपने निजी अनुसन्धान में.......,
इस बात से बेखबर, बेपरवाह कि
इसका अंतिम भविष्य क्या है?
क्या है इसकी उपयोगिता - उपादेयता?
समाज, संस्कृति और प्रकृति के लिए?

सोचिये! महाभारत का रूप क्या होता?
शांतनु का मन यदि विचलित न होता?
भीष्म ने पित्री भक्ति में प्रतिज्ञा की तो की,
परन्तु समय पर यदि समीक्षा किया होता?
कुंती ने ऋषि मन्त्र पर यदि विश्वास किया होता?
शंकालु हो, परीक्षण का दुस्साहस न किया होता,
कर्ण जैसी प्रतिभा को विवादास्पद बनाया न होता.
यदि गांधारी ने आँखों पर पट्टी बाँधी न होती?
राज्य प्रबंधन में ध्रितराष्ट्र का हाथ बंटाया होता?
पति के भटकाव पर यदि सन्मार्ग दिखाया होता?


इन सबके बावजूद यह इतना विभत्स न होता,
आखिर शकुनी जैसों का बहन के घर क्या काम?
विदेशी कोई भी हो अंततः विदेशी ही होता है,
चाहे वह शकुनी हो, एंडरसन हो या कोई अन्य पर्सन.
ध्यान रहे जब भी बाहरी व्यक्ति अत्यधिक सम्मान पायेगा,
एक दिन घर पर / समाज पर धुँध बनकर छा जायेगा.
सच मानिये, महाभारत का है जो भी स्याह पक्ष ,
कुटिल, धूमिल विभत्स और विकृत चित्र...........,
वह आया ही न होता, बद्नुमदाग बन छाया ही न होता,
यदि शकुनी जैसों का मान -सम्मान बढाया न गया होता.


लेकिन सोचिये ऐसा क्यों हुआ?
इसलिए की यह मानव स्वभाव है,
वह स्वयं को तुष्ट -संतुष्ट करना चाहता है,
उसकी अपनी व्यक्तिगत सोच और अरमान है.
उसका अपना निजी दर्शन और विज्ञानं है.
वह इतिहास से सीखता है और भूगोल बदलता है.
विज्ञानं में संशोधन परिवर्धन करता है.


लेकिन हमने इतिहास से नहीं सीखा,
फलतः भरत का भूगोल बदल गया है आज.
इतने सदियों बाद भी क्या हम उठ पायें है,
महाभारत कालीन कमजोरियों से?
यदि नहीं तो कब चेतेंगे?
यदि उसी परंपरा के संवाहक हैं अब भी,
तो क्या नए महाभारत का सृजन करेंगे?
अथवा अपना सुधार और परिष्कार करेंगे?
यदि अब भी न चेते तो इतिहास अपने को
दुहरा जाएगा और भारत का भूगोल
एक बार फिर बदल जायेगा.

सोचिये....सोचिये और हमें भी बताइये,
कुछ मार्ग तो दिखाइए, ध्यान रहे -
हमें समृद्ध
भारत चाहिए महाभारत नहीं.

वर्तमान क्या है, इसका मूल्य क्या है?

जिसे दी गयी है 'आज' की संज्ञा,
वह क्या है, समय का प्रवाह खण्ड?
भूतकाल की पश्चाताप ?
या वर्तमान की निराशा?
यह भविष्य की कल्पना है
या निरा स्वप्न?
भूत जो हमारे बश में नहीं,
जहाँ लौटना और लौटाना,
दोनों ही है अब तक असंभव.
परन्तु कल क्या हो पायेगा संभव?

और भविष्यत् क्या है?
एक स्वप्म, एक आशा;
या भूत का प्रायश्चित,
सुधार का एक अवसर?
प्रकृति का दिव्य उपहार?
या कृपा निधन की कृपा?

क्या यह आज असंतुष्टि और,
स्वप्न के बीच एक प्रत्याशा है?
या परीक्षा की एक घडी ?
जिसमे है मन और बुद्धि,
यथार्थ और आदर्श का द्वंद्व.

आज का अर्जुन तो व्यामोह में खड़ा है.
अभिमन्यु को रणक्षेत्र में क्या तब भी
जाने देता यदि स्वयं उपस्थित होता?
लेकिन इसकी आवश्यकता ही कब पड़ती?
तब क्या चक्रव्यूह भी रचा जाता? सभी ने
कल की प्रत्याशा में अपने आज को जिया था.
जो मन में आया विजय के लिए किया था.

तो क्या विजय ही है सर्वोच्च मूल्य?
क्या भरत का राज्य त्याग, उनकी हार है?
क्या भीष्म का प्राणोत्सर्ग उनका प्रायश्चित है?
क्या दधीचि का अस्थि दान उनका भय है?
क्या अनुसुइया का दुग्ध पान करना, पराजय है?
इनमे किसी को भी सत्ता तो महीन मिली,
गद्दी और राज्य तो नहीं मिला ?
तो क्या इनके कृत्य का कोई मूल्य नहीं?
आखिर निर्याय कौन करेगा?
कौन करेगा मूल्यों को परिभाषित?
हम, आप या आगामी पीढ़ी?
कौन ढोयेगा भूतकाल की सीढ़ी?