सायंकाल की रक्तिम लालिमा
धरती की छिट-फुट हरीतिमा
के मध्य नीले आकाश में,
लय में पंक्तिबद्ध उड़ते हुए पंछी
जब मचाते हैं कोलाहल और
करते हैं - सामूहिक कलरव,
तो यह मात्र कलोल नहीं होता.
होती है उसमे सम्मिलित वह ख़ुशी
जो अपना पेट जाने भरने के बाद
लाते हैं चोंच में भरकर बच्चों के लिए.
अपना पवित्र दायित्व समझकर,
ममता के पवित्र बंधन में बंधकर.
कहीं रुकते नहीं, किसी दूसरे गाव में,
अजनवी बाग़ में, अजनवी घोसले में.
परन्तु,
इंसान का जब भी भरा होता है
पेट और भरी होती है - दोनों जेब;
वह जा घुसता है नामी होटलों में.
किसी अजनवी आशियाने में....
अजनवी लोगों के बीच पाने को ख़ुशी.
आखी वह ख़ुशी क्यों नहीं मिल पाती
उसे अपने ही भरे - पूरे परिवार में...?
क्यों बहक जाते हैं उसके कदम?
क्या है यह आधुनिकता या मजबूरी?
क्यों है वहाँ प्यार और स्नेह का अभाव?
क्यों है कडवाहट दाम्पत्य जीवन में?
क्यों है वह असंतुष्ट अपनी ही संतानों से?
कब रुकेंगे उसके पाँव बहकने से...?
कब बांटेगा वह अपनी प्रसन्नता,
अपना सुख - दुःख अपनों के बीच?
कब पंछियों जैसे हुए..गीत गाते ..
गुनगुनाते वह लौटेगा अपने नीद में?
आखिर कब..? आखिर..आखिर कब...?