Saturday, July 25, 2015

पलकें, क्यों मुरझाई शाम को

सुबह- सुबह जो खिली थी पलकें, क्यों मुरझाई शाम को ?
बैठ रहा है मन-मस्तिष्क, क्या दूंगा मैं उत्तर श्याम को ?
पलकें ये हों खुली या बंद, ये विस्मित ही अच्छी लगती हैं ।
कौन सा जुगत लगाऊँ अब मैं? क्या समझाऊँगा श्याम को?

कैसे कह दूँ, निर्दोष हूँ मैं? सारा दोष तो है इन्हीं पलकों मे ?
पलकों मे तो मैं ही बसता था, कोई चोट नहीं दी पलकों ने ॥
क्या उत्तर दूंगा मैं इसका? क्यों छोड़ दिया घर पलकों का?
बताऊ तब, गुनाह हो जब, कोई गुनाह नहीं इन पलकों का ॥
आज भय मेरा मुझसे पूछ रहा, तू कहेगा क्या फरियाद मे?
हो जाएगा दोनों का निर्णय, आज ही श्याम की अदालत मे ॥
पलकों ने मुझे फिर मात दिया, अपराध को अपने माथ लिया ।
लेकिन निर्णय तो निर्णय था, श्याम ने उचित फरियाद किया ॥
कुछ सीख मूर्ख ! तू इन पलकों से, दिन रात जो बहती रहती है ।
देती कितना मान तुझे, अब भी तेरे पर दोष न एक ये मढ़ती है ॥
अंतर है यही नारी और नर मे, नारी जिसे चुनती,फिर चुनती है ।
उसमे इतना धैर्य कहाँ ? गर्व जिसका ?,वह नारी की शक्ति है ॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी