शब्दों के
अरण्य में: चक्रमण - परिभ्रमण
(भाग- ४)
घूमा हूँ खूब, इन शब्दों के अरण्य में
रचनाओं ने ले लिया अपनी शरण में.
तभी से उन शब्दों को तोलने लगा हूँ
अभीतक था मौन, अब बोलने लगा हूँ.
चक्रमण–परिभ्रमण
करते-करते यह मन जब चन्दन वृक्षों के पास से गुजरता है तो अपनी आदत और स्वभाव के
अनुसार कुछ न कुछ गुनगुनाने लगता है. जो कुछ भी वह इस समय गुनगुना रहा है वह तो एक
कविता है.., उसकी ही एक रचनावाली.., एक प्रश्नवाचक कविता. जिसमे वह पूछता है- कविता क्या है- एक उपासना / कविता साध्य है या साधना / कवता
लक्ष्य है या आराधना / कविता यथार्थ है या
भावना / कविता बोध है या संभावना / कविता अश्रुधार है या अभिव्यक्ति / कविता
उच्छ्वास है या आभ्यंतर शक्ति / कविता प्रणय है या समर्पण और भक्ति / कविता कोलाहल
है या पूर्ण संतृप्ति / कविता हलाहल है या जीवन का वरदान / कविता अंतर की शान्ति
है या अतृप्त अरमान / कविता सन्देश है प्रदर्शन है या अभिमान / कविता निजत्व का
विलोपन है या एक पहचान / कविता उत्साह है या बहकता हुआ उमंग / कविता एक धार है या
उठती हुई तरंग / कविता एक विकार है या जीवन का रंग / कविता भौतिकता है या एक
सत्संग / कविता कृति है मानव की /फिर मानव है कृति किसकी / मानव सृष्टि की कविता
है / फिर सृष्टि यह कविता है किसकी?
सृष्टि यह कविता है किसकी? इस प्रश्न पर भाग-१ में विचार किया जा चुका
है. अब बचे शेष प्रश्न, जिसपर उत्तर की तलाश है इस अरण्य में. सहसा जिज्ञासु मन
पूछ ही बैठता है- शब्दों के इस अरण्य में, कविताओं की इस सरिता
में, क्या ‘शब्द’ और ‘कविता’ की अंतर्वस्तु पर कोई काव्य-विमर्श नहीं? शायद इस
अरण्य की बहती सरिता-धारा ने मेरे मन की भाषा–जिज्ञासा को पढ़ लिया था.. तेज एक लहर
उठी... और ऐसी उठी की मन-मस्तिष्क दोनों को भिगो गई. वह बोली- कविता, काव्य-रचना, काव्य-विमर्श ढूढते हो?
क्या सुनाई नहीं देती यह स्पष्ट स्वर लहरी? अपने भटकते हुये चंचल मन को केंद्रित
तो करो! मैंने वही किया. अरे हाँ, ... अरे वाह ! .. सुनने लगा उन शब्द लहरियों को,
पकड़ने लगा उनके एक-एक वर्ण को – ‘शब्द के धंधे से दूर
/ स्नेह के संकेत को समझो तो / जानते हो तो बताना / वरना चुप रहना और गुनगुनाना / प्रणय
की आशा से उपजी आहटों को मत कहो कविता /
बुना जाता तो स्वेटर है गुनी जाती है कविता / .. कविता शब्दों का जाल नहीं / कविता
दिल का अलाप नहीं / कविता को करूण का क्रंदन मत कह देना / कविता शब्दों में ढला
अक्स है आहट का’.
संवेदी
मन पुनः सोचने लगत है, यदि कविता शब्दों में ढला अक्स है तो इन अक्सों के जीवन में
इतनी विविधता क्यों? क्यों होते हैं कुछ अक्स, कुछ कवितायेँ क्षणिक, कुछ दीर्घजीवी
और सुदीर्घजीवी? शब्द तो मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का आधार है इसलिए ‘शब्द खोदने लगते हैं सपनों की जमीन / और वक्त अचानक पलट कर
देखने लगता’. और यह कवता? मैं तो यही कहूँगा कि कविता कोई चातुर्य नहीं है
शब्दों का, वह दिल से निःसृत एक आवाज है. यह साज की मर्जी, साथ दे या न दे. वह सज
की नहीं कभी मोहताज है. क्योकि साज को कानों तक पहुचने के लिए, ध्वनि का सतत चाहिए
साथ. कविता संतेतों और प्रतीकों से भी पहुचती है दिल के कोने-कोने तक अपनी आवाज.
शब्दों के अरण्य में ऐसी ही कविताओं का संग्रह
है. ये कविताये आपस में ही संगोष्ठी करतीं हैं, विचार-विमर्श, आरोपण-प्रत्यारोपण
करती हैं और ढूंढती है आध्यात्मिक-सामाजिक समस्यायों का तथोचित समाधान भी. यहाँ,
कन्या भ्रूणहत्या जैसे प्रश्न पर यदि विमर्श है तो सतीप्रथा जैसी सामजिक विकृत
परंपरा पर गहरा रोष भी. और रोष भी इतना व्यापक की पूरे पुरुष समाज को ही ललकार उठा
हो. एक खुली चुनौती दी गई है पुरुष सत्तात्मक समाज को. उत्तरदायी ठहराकर उससे उत्तर
माँगा गया है. ऐसा साहसपूर्ण कदम तो वही उठा सकता है जो समाज कर प्रति, कुरीतियों
के निवारण हेतु सजग हो, निडर-निर्भीक हो..- ‘काली विभत्स रात गुजर गई / दे एक नई
भोर / और छोड़ गई सवाल / जो हैं आज तक अनुत्तरित / क्यों
नहीं पुण्य कमाते पति / कर पत्नी के शव पर निज दाह / क्या है कोई जवाब / बोल मेरे
पुरुष-प्रधान समाज?
यह सच है कि- 'गुजरते लम्हों की अपनी
गति होती है / दिन-महीने-साल भी / अपनी गति से गुजरते
जाते हैं / पर उम्र का हर नया
पड़ाव / पीछे की ओर धकेलता है / ये सच है कि / एक सा तो हमेशा कुछ भी नहीं रहता. इसीलए तो कहा जाता है सृष्टि
परिवर्तनशील है. किनती परिवर्तन कि भी दिशा होती है- धनात्मक और ऋणात्मक.
संवेदनशील मन का कार्य ही है नकारात्मक दृष्टि को सकारात्मकता कि और मोडना. और यह
कार्य ये रचनाये बखूबी करने में सक्षम हैं.
मेरे
संवेदीमन को अंततः कहना ही पड़ेगा – ‘इस अरण्य में कुछ
भी अर्थहीन नहीं / बस अर्थ अलग अलग हैं’. इसमें प्रणय, प्यार, पुचकार तो
अच्छे लगते ही हैं, फटकार और चुनौतियां भी कम आकर्षित नहीं करती? इन फटकारों और
चुनोतिओं से भी यदि किसी मन में संवेदना जागृत हो उठे तो यही तो इस रचना की
सार्थकता है और इस दृष्टि से लगभग सभी संकलित रचनाये, अपने-अपने उद्देश्यों में
न्यूनाधिक सफल है. उनका कार्य मानव की निद्रा और तन्द्रा को तोडना है, अपने इस दृष्टि
से वे सार्थक हैं.
अर्थों
की विभिन्नता ही इस संग्रह का काव्यात्मक सौंदर्य है और इसका सामजिक–नैतिक मूल्य
भी. स्वरों की एकता तो श्रृंगालों में होती है और चाल की एकता भेड़ों में. यहाँ तो
संवेदनशील रचनाकारों के स्वर हैं, यहाँ एकता कैसे? यहाँ एकत्व की अपेक्षा करना
बेमानी होगी. यहाँ एकता का तात्पर्य किसी एक सोच के हाथों अपने को गिरवी रख देने
जैसा होगा. इस अरण्य-जगत में यदि सूर्य की उष्णता और ताप है तो चन्द्रमा की
स्निग्ध शीतलता भी. रात्रि की स्याह कालिमा है तो चमकती-दमकती चांदनी भी,
नीले-पीले तारों की टिमटिमाहट भी. यहाँ ऋतुए हैं और ऋतु परिवर्तन के साथ अनुभूति
परिवर्तन भी. लेकिन ये सभी अर्थग्राही काव्य किसी न किसी मूल विन्दु को अपने विचार
केन्द्र में दृढ़ता के साथ समाहित किये हुये हैं. इसलिए यह काव्य संग्रह
सुदीर्घजीवी कोटि का है. इस अरण्य में और भी सुगन्धित कई पेड़-पौधे और पुष्प हैं,
जो कहीं भी सजाये जा सकते हैं. उन्हें स्थान यदि नहीं मिल्पया तो यह उनकी नही,
मेरी कमी है, जो उनके लिए भाव-पटल तैयार न कर सका. इन शाद चित्रों कि आँखों में
ऐसी ज्वाला है, ऐसी करुणा है, ऐसा उच्चकोटि का साख्य और समर्पण है कि काव्यगत- ‘इन आँखों का पढ़ना मुश्किल है / पढ़ लिया तो फिर समझना
मुश्किल है / समझ लिया तो फिर भूलना
मुश्किल है. इस क्षणभंगुर जगत में अमर तो कुछ भी नहीं, इसलिए
यह ग्रन्थ चिरंजीवी हो, यशस्वी हो, ऐसी मेरी शुभशंसा और आकांक्षा है.
अभी
भी आप कुछ और सुनना चाहते हैं तो सुनिए मेरा निर्णय – शब्द, यदि शब्द बनकर ही रह गए, अर्थ, यदि अर्थ तक ही सिमट गए तो सिसक उठेंगी संवेदनाएं हमारी. फफक पड़ेंगी, ये वेदनाएं सारी. इन शब्दों को, वेदनाओं-संवेदनाओं के भाव-सागर में बह जाने दो. पहचान तो उन्हें लेंगे ही, अनुभूतियों को पास तो आने दो. इन ध्वनिओं को, अक्षरों को, वर्णों को और विकसित होने दो, और भी खिलने दो. परिपुष्ट होने के लिए उसे विचरने दो. तन और मन दोनों से ही स्पर्श करना चाहता हूँ.. इन ध्वनियों को, अर्थ- भावार्थों-निहितार्थों को. मात्राओं-अनुनासिक और अनुस्वारों को. उनके संकेत और प्रतीकों को, उनके भाव भरे लोक गीतों को, उन्ही का एक मधुर -मृदुल सहचरी बनकर. अब तक तो जो कुछ भी जाना- वह नैमिष्य के अरण्य में जाना. और आज.. परमाणुओं के इस अरण्य में, कुछ नहीं, बहुत कुछ... ढूंढता हूँ मैं.जिसे कहते हैं अरण्य हम सब, चिदणुओं का समूह है वह तो. चिदणुओं की इन गांठों को अब खोलना चाहता हूँ मैं. शब्दों के अर्थ तक सीमित न रह कर, शब्दोंकी समग्रता चाहता हूँ. अरण्यों से एक अनुराग सा अबहो गया है मुझे. इन चिदणुओं के साथ खूब खेलना चाहता हूँ. और अब तो शब्दों के अरण्यों में ही बस जाना चाहता हूँ मैं.
डॉ. जयप्रकाश तिवारी
संपर्क
सूत्र: ९४५०८०२२४०
आपकी जानकारी के लिए
Shabdon Ke Aranya Mein
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