शब्द और अर्थ दोनों का
सम्बन्ध है अन्योन्याश्रित,
शब्द का महत्व है अर्थबोध
लेकिन जिनका अर्थ हम
नहीं जान पाए हैं अबतक
क्या वे अर्थहीन हैं? नहीं,
औचित्य विहीन हैं? नहीं.
अर्थबोध की विलक्षणता ही
देती उसे नवऊर्जा नवजीवन.
यह सर्व विदित है कि ‘कस्तूरी’ मृग की नाभिक में ही अवस्थित
होता है परन्तु उसकी सुगंध से सुवासित हो मृग-मन भटकता रहता है जंगल में दरबदर, इस
कोने से उस कोने तक. उसी कस्तूरी की तलाश में काव्य संग्रह ‘कस्तूरी’ में भटक रहे
हैं ब्लाग जगत के श्रेष्ठ युवा चिन्तक-कवि. प्रथम जिज्ञासा तो यही है कि वह कौन सा
तत्व है जिसे इन चितकों ने ‘कस्तूरी-तत्व’ की संज्ञा दी है, उस कस्तूरी तत्व की
पहचान करना आवश्यक है. संख्या की दृष्टि से इन अन्वेषी चिंतकों की संख्या २४ है.
आध्यात्मिक दृष्टि से २४ की संख्या अत्यंत महत्वपूर्ण है, सुप्रसिद्ध गायत्री
महामंत्र में २४ अक्षर हैं. २४ घंटे मिलकर दिवस और रात्रि का एक आयाम पूर्ण करते
है. समाज की सर्जनात्मक प्रवृर्त्तियाँ ही दिवस है तथा नकारात्मक विध्वसत्मक
प्रवृर्त्तिया ही रात्रि. इस सन्दर्भ में दूसरी जिज्ञासा यह है कि ये २४ युवा
चिन्तक जिस कस्तूरी-तत्व की खोज में हैं, क्या उन्हें इसकी प्राप्ति हुई अथवा ये अभीतक भटक ही रहे हैं, कानन मृग की तरह?
आगे बढ़ने से पूर्व इन जिज्ञासाओं पर विचार करना अनिवार्य सा जान पड़ता है.
उत्तर को खोज में अन्वेषी मन जब काव्य सागर में उतरा तो उसे
अधिक श्रम नहीं करना पड़ा, उसके सूत्र प्रथम रचना में ही दिख गए, तथापि सम्पूर्ण
अध्ययन आवश्यक था, अस्तु सूक्ष्म दृष्टि से काव्य की गहराइयों में घुस कर इसकी
तलाश, इसका अवगाहन करता रहा. और मैंने पाया कि सामान्य रूप से जो अन्तःधारा इन
कवियों की लेखनी का विषयवस्तु बना है, वह है –‘प्रेम तत्व’. विषय नया नहीं
है लेकिन कथ्य नया है, तर्क नए हैं और युक्ति तथा शैली में भी नवीनता है. आग्रह और
समर्पण के साथ निराशा, विरक्ति और फटकार भी है. लेकिन बहुत अच्छा लगता जब ये युवा
मन अपनी बात को निःसंकोच प्रकट कर देते है. उन्हें इस बात कि चिंता नहीं कि
साहित्यिक अभिव्यक्ति कि दृष्टि से उन्हें कहाँ स्थान मिलेगा? किस श्रेणी में रखा
जायेगा? उनकी रचना को काव्य कहा जायेगा या गद्य काव्य या और कुछ... उनके लिए
अभिव्यक्ति ही प्रधान है और यह कोई दोष नहीं है. भाव जब भी उछाल मारता है वह सीमा
की परवाह कहाँ करता है? फिर भी ये चिन्तक कहीं भी अमर्यादित नहीं हुये है हैं. इस
लेखन दायित्व का उन्होंने सम्यक पालन किया है, ऐसा मैंने पाया है.
इस काव्य संकलन के प्रथम कवि का चयन मात्र संयोग है या
सुविचारित, इसे मैं नहीं जनता लेकिन एक अन्वेषी दृष्टि का सूत्रपात यह कवि कर देता
है – ‘जिंदगी के सफर
में / खुशियों का कोई नगर है / जिसकी तलाश में निकले हैं / जाने वो किधर है / जाने
वो किधर है...”. इसी तलाश में, इसी अर्थ्वात्तापूर्ण खोज में वह पा जाता है
एक ‘नाम’. यह नाम बहुत बड़ी चीज है. लोग दूध्ते रहते हैं इस जीवन भर, जन्म-जन्मातर
तक, परन्तु मिलता नहीं यह नाम. जिसे मिल जाता है वह बोल ही पड़ता है मीरा की तरह – ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो’, या फिर मौन हो जाता है, बुद्ध की तरह. अथवा सभी
सांकेतिक नामों को छोडकर केवल ‘नाम’ को ही रटने लग जाता है, यह नाम ही उसके जीवन
में रच-बस जाता है. यह नाम ही पदार्थ है.., नाम ही तत्व है, नाम ही सत्य है. गुरु
नानकदेव जी ने इसे सतनाम कहा है –
‘१ ओंकार सतनाम...’ . कवि हैरान है, वह
जानना चाहता है इसका कारण. आखिर वह पूछ ही बैठता है –
‘हैरान हूँ तुम्हारे नाम से इतनी मुहब्बत क्यों है? यह मुहब्बत ही है वह ‘कस्तूरी-तत्व’
जो इस काव्य संग्रह का केन्द्रीय विन्दु है और उसी खोज में, इस ‘क्यों’ के उत्तर
की तलाश में निकल पड़े है ये युवा कवि, अपनी-अपनी भावनाओं – सम्वेदानाओं के शब्द
प्रवाह के साथ. इस प्रवाह में यह स्पष्ट हो जाता है कि यह नाम व्यक्ति वाचक नहीं,
समष्टि वाचक है. इस मुहाब्बत का इस कोटि का विस्तार पा जाना ही उनकी प्रगति है जो
उन्हें आध्यात्मिकता की कोटि में पंहुचा देती है. फिर उसकी दृष्टि तो यही देखती है
कबीर की तरह – ‘लाली मेरे लाल
की जित देखूं तित लाल लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल’. कवि की दृष्टि भी कुछ ऐसा ही स्वरुप ग्रहण करती है,
वह कहता है – ‘तुम्हारे तसव्वुर का साया छाया हुआ है
इस कदर / बात किसी से भी करूं मुसलसल ख्याल तू ही तू है / .. हर शेर हर गजल में
शामिल तू ही तू है.. ’. इस प्रकार केन्द्रीय ‘कस्तूरीतत्व’ का पूर्ण परिचय प्रथम
कवि की संवेदी अभिव्यक्ति से सहज ही हो जाता है. इन रचनाओं में दार्शनिक दृष्टि से
सर्वेश्वरवाद और सूफी अद्य्यात्म्वाद की प्रौढ़ झलक इसमें मिल जाती है. यह धारा आगे
चलकर कई प्रकार का मोड, आयाम और प्रवाह भी धारण करता है लेकिन अंतर्धारा यही है,
प्रेम की धारा. नदी का पाट चौडा होने से कहीं प्रवाह मंद है तो पाट की संकीर्णता
में प्रवाह की यह गति अत्यंत तीव्र है.
अनुभूति और जिज्ञासा का यह प्रवाह द्वितीय कवि की रचनाओं में
भी मिलाता है, रचनाओं में बोल फूट ही पड़ते है दार्शनिक अंदाज में कुछ यूं – ‘मैं एक हूँ / मैं अनेक भी / मैं साकार हूँ / कल्पना भी मैं../ मैं खुद चकित
हूँ / कौन हूँ / मैं मुखर हूँ / मौन हूँ’. और जब इन प्रश्नों का उत्तर मिल
जाता है तो समाज कल्याण के लिए चिल्ला उठता है यही संवेदी मन. अपनी अनुभूतियों
संवेदनाओं को वह रोक नहीं पता और स्वर कुछ विद्रोही सा रूप धारण कर लेता है. वह
नकारात्मक वृत्तियों का विरोध करता है, उसकी आलोचना करता है – ‘तुमने / कभी नहीं सुना / गुलाब के टेढ़े काँटों का दर्द /
नहीं सुनी दरकती जमीन की प्यास / कभी नही देखा आंसुओं का सूख जाना’.
डॉ. जय प्रकाश तिवारी
संपर्क – ९४५०८०२२४०
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