हाँ बात बिलकुल सही है, यह दहेज रूपी दानव ही तो है जो कन्या भ्रूण को असमय ही निगल रहा है। जानते सभी हैं, अनजान कोई भी नहीं। प्रत्येक परिवार बेटेवाला भी है और बेटीवाला भी, लेकिन सार्थक पहल नहीं हो रही।
अब कन्याओं ने स्वयं प्रश्न उठाना शुरू कर दिया है इस समाज से –
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“उस देश की बेटी हूँ /
जहां जन्म के पहले /
लड़की भ्रूण हत्या की शिकार होती है /
लड़की भ्रूण हत्या की शिकार होती है /
यदि भूल से दुनिया मे आ ही गयी /
तो भूदान गोदान की भांति /
कन्यादान के लिए पाली जाती है /
मानो विवाह बलिदान हो
और वह बलि का बकरा /
नौकरी पेशा है तो कामधेनु है /
जलकर मरेगी नहीं /
तो भूदान गोदान की भांति /
कन्यादान के लिए पाली जाती है /
मानो विवाह बलिदान हो
और वह बलि का बकरा /
नौकरी पेशा है तो कामधेनु है /
जलकर मरेगी नहीं /
सोने के अंडे देगी जिंदा रहेगी /
अंडे न दे तो दहेज लाये /
अंडे न दे तो दहेज लाये /
वरना उसे जीने का अधिकार नहीं। “
बाप का दर्द भी कम नहीं है, उसकी अपनी समस्या है, वह कहता है -
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“बेटी ! ओ बेटी !! /
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“बेटी ! ओ बेटी !! /
तुम धीरे धीरे बढ़ो न /
उम्र की सिद्धियों पर चढ़ने की /
उम्र की सिद्धियों पर चढ़ने की /
इतनी जल्दी क्या है? /
मैं तुम्हारा पिता हूँ /
मैं तुम्हारा पिता हूँ /
इसलिए तुझे चेतावनी दे रहा हूँ /
की तुम बारह वर्ष मे ही /
की तुम बारह वर्ष मे ही /
सत्रह सिंधियों को कैसे पार कर गयी? /
इतनी जल्दी मैं धन
इतनी जल्दी मैं धन
तुम्हारे लिए कहाँ से लाऊँगा?
बेटी ! ओ मेरी बेटी !
बेटी ! ओ मेरी बेटी !
मुझपर रहम कर.....”
जब हम हिंदी साहित्य में काव्य के माध्यम से ‘भविष्य की नारी’ पर विचार-विमर्श करते हैं तो दृष्टि पटल पर सहसा हमारा ध्यान आकृष्ट करता है,वर्ष २०१३ में प्रकाशित सम्वेदनशील रचनाकार डॉ. रमा द्विवेदी का हाइकु-संग्रह “साँसों का सरगम” जिसमे कवियित्री ने नारी-अस्मिता, नारी चेतना के विषय में समाज के विभिन्न वर्गों से तो वार्तालाप किया ही है, गर्भस्थ भ्रूण (गर्भस्थ शिशु) से भी वार्तालाप किया है. यह वार्तालाप भावी स्त्री विमर्श, स्त्री की दशा और दिशा को नए रूप, नए अंदाज, नए तेवर और नयी योजना-परिकल्पना के रूप में एक शोधित, संशोधित, परिवर्तित समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो ‘भविष्यत की नारी’ के रूप में ‘स्त्री विमर्श’ की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है
अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना पड़ता है- "खुद ही खोजो/ कोई न बतायेगा/ जीने की राह". लेकिन यह समाज जब किसी नारी को अपने मार्ग से आगे नहीं बढ़ने देता, मार्ग में नाना प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता है तो यही नारी आक्रोशित होकर दृढ स्वरों में चेतावनी देती है– ‘कोमलता को कमजोर समझता / यह है तेरी नादानी / आती है बाढ़ नदी में जब / जग को करती है पानी-पानी’. नारीत्व कमजोरी नहीं है. नारीत्व शक्ति का मूल स्रोत है। बढ़ती हुयी कन्या भ्रूण हत्या के प्रति उनकी घृणित मानसिकता के लिए समाज को ही नहीं, अपने परिवार और पति को भी कठघरे में खड़ा किया है. सोच और कथ्य की दृष्टि से यह एक अनूठा कार्य है. वे सभी को ललकारते हुए कहती है- "जन्मदात्री हूँ/ बेटी भी मैं जनूंगी/ रोकेगा कौन?". साथ ही कहती है- “आग का गुण/ केवल जलना नहीं/ जलाना भी है”. यहाँ लक्षणा शब्दशक्ति से ‘आग’ शब्द नारी के वाच्यार्थ में ही आया है. निश्चित रूप से सामजिक विद्रूपताओं, अंधविश्वासों, कुरीतियों और व्यापारवाद की चक्की में पिस-रहा, घुट-रहा, जल-रहा, नारी-मन ही आग की संज्ञा से संबोधित है- “आत्मा की दूर्वा / जल रही आग में/ देह ईंधन”. लेकिन यह संबोधन एवं आह्वान अंततः ध्वंसात्मक और विघटनकारी नहीं, सृजनात्मक है. यह चेतावनी उनके लिए है जो प्यार, अनुग्रह, आग्रह और युक्ति-तर्क को भी नकार देते हैं. जो सुनने, समझने और मनन को तैयार हैं उनके लिए कवियित्री का स्वर संयम, युक्ति और तर्क से संयुक्त है.
वे प्यार से समझाती हैं– “स्त्री भ्रूण हत्या/ बिगाड़ा संतुलन/ सृष्टि का नाश”, फिर तर्क करती हैं – “बिगड़ेगा जो/ सृष्टि का संतुलन/ ब्याहोगे किसे?”. कवियित्री की एक अनूठी विशेषता यह भी है कि वह केवल समाज से ही वार्तालाप नहीं करतीं; वह गर्भस्थ-भ्रूण (शिशु) से भी वार्तालाप करती है और इसी बहाने नारी विवशता तथा आक्रोश को रेखांकित करती है. गर्भस्थ कन्या-भ्रूण माँ से कहती है- "संहार मत/ अपने स्वरुप को/ माँ आने भी दो". प्रत्युत्तर में माँ तड़पकर, आहत होकर असहाय सी अपनी वेदना प्रकट करती है - "गर्भ सुरक्षा/ दे सकती हूँ बेटी/ बाहर नहीं" जानती हो क्यों? क्योकि बाहर तेरा सबसे बड़ा शत्रु तो वही है, जिसका तू अंश है - "जीवनदाता/ बन गया राक्षस/ सुरक्षा कहाँ?". इस विवशता पर पतिपरमेश्वर का 'अविरोध करने की परंपरागत मान्यताओं की बेड़ियों में जकड़ी एक पत्नी', एक माँ के रूप में, एक आज्ञाकारी कुलवधू के रूप में कर ही क्या सकती है, आंसू बहाने के अतिरिक्त- "चंद कतरे/ टपक कर गिरे/ क्या क्या न सहे?". माँ की सारी विवशता समझ जाती है, वह गर्भस्थ-कन्या इस सामाजिक कुपराम्पारा के सर्वनाश का तत्क्षण ही संकल्प लेती है और माँ को भी अनुप्रेरित करती है. उसके अंतर की सुषुप्त नारी-अस्मिता को जागृत करती है, इस कुव्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह और विनाश का आह्वान करती है- 'भेदना होगा/ दुष्टों का कुचक्र/ चंडी बन के'. माँ तुमने बहुत सह ली अब तक.., अब चुप न बैठो.., माँ तुम "चुप न बैठो/ काली कपाली बन/ करो संहार". यहाँ जब 'संहार' शब्द पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह 'संहार' शब्द डरावना अवश्य है लेकिन यह समाज का संहार नहीं है, यह बुराइयों का संहार है. इस संकल्प को माँ यदि पूरा न कर सकी तो गर्भस्थ कन्या, बेटी – वधू - माँ और सासू-माँ बनकर अपना यह संकल्प पूर्ण करेगी. इसलिए वह बलपूर्वक माँ से कहती है - तू चंडी बन जा, काली बन जा, कपाली बन जा, विद्रोहिणी बन जा और जन्म दे मुझे. तू मुझे केवल अस्त्तित्वमान बना दे माँ! शेष कार्य तो मैं पूरा करूंगी. मेरा यह अनुरोध स्वीकार लो माँ, इसलिए पुनः पुनः कहती हूँ- "संहार मत / अपने स्वरुप को / माँ आने भी दो". उन्हें लगता है कि नारीशक्ति ही अब नारी-अस्मिता की, उसकी गरिमा की, मातृभूमि की और राष्ट्रीय / सांस्कृतिक मर्यादा की रक्षा कर पायेगी; कोई दूसरा नहीं, तभी तो कहती है दृढ़ता के साथ-बीज का". यहाँ ‘काली’, "बढा अधर्म / पीयेगी रक्त काली / रक्त ‘कपाली’ और ‘दुर्गा’ कोई और नहीं, नारीशक्ति ही है. यह ‘काली’ हमारि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक प्रतीक है,
उपरोक्त बातों पर समाज के संवेदनशील व्यक्तियों को ही ध्यान देना होगा, उठ खड़ा होना होगा और इसके लिए एक विद्यामन्दिर से अधिक उपायुक्त कौन सी जगह हो सकती है अपनी बात रखने के लिए। युगगरिमा परिवार ने यह महाभियान ज़ोरशोर से प्रम्भ किया है। हमारा कर्तव्य बन जाता है की इस अभियान का समर्थन करें। पूरा समर्थन, अधूरा नहीं।
डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी