मात्र कहने भर को ही तो, एक सुदृढ़ चट्टान
हो तुम!
लेकिन कितना एक दुर्बल, औ विकृत इंसान
हो तुम!
थकते नहीं शेखी बघारते, सच्चाई को
भी तुम नकारते,
परंपरा की बात बताकर, नारी को ही एक
सीढी बनाकर
बनते कितने हो महान? फिर भी कितने परेशान
तुम!
परंपरा की बात को छोडो,
संस्कृति-सभ्यता को भी छोडो!
सर्जक तेरा कौन? ये सोचो, पालक-पोषक
कौन? ये सोचो!
परंपरा यह किसकी देन? इस गहनता का
निर्माता कौन?
सच है पुरुष विशाल प्रासाद, इस
प्रासाद की नींव है कौन?
सब भर है जिसके सीने पर, उफ़तक ना
करती, बोलो कौन?
क्या भूल गए उस पय को? क्या भूल गए, झूला कर का?
नारी ने तुझे संस्कार दिया, पर तूने तो उसी पर वार किया,
नारी ने नारी-संग तुमको बाँधा,
तुमने तो अपना हित साधा,
तोड़ के आज मर्यादा-बंधन, विकृतियों
के संग किया गठबंधन
कर डाला उसी को ‘क्षत-विक्षत’, रखा
जिसने तुमको ‘अक्षत’.
अब जाना, क्यों हो गए चट्टान?
संवेदन-शून्य, तू मूढ़, नादान!
शर्म भी, नहीं आती तुमको! अब भी हो
कहते, खुद को महान,
अरे पुरुष ! हे मूर्ख नादान, काश!
सचमुच तुम होते – ‘महान’.
डॉ. जयप्रकाश तिवारी, भरसर, बलिया (उ. प्र)