भारतीय संस्कृति में वर्णित उपनिषदिक दर्शन को प्रायः 'पूर्णता का दर्शन' कहा जाता है. क्या है यह पूर्णता का दर्शन और क्यों कहा जाता है इसे पूर्णता का दर्शन? आइये आज इसे समझने का प्रयास करते हैं. इसके लिए श्वेताश्वर उपनिषद् के एक मन्त्र को यदि हम प्रतिनिधि और बीजमंत्र कर रूप में स्वीकार कर सकें तो यह पूर्णता अपने दिव्य रूप में वहाँ प्रकट होता है, समझने और समझाने दोनों ही दृष्टि से यह उत्तम है.यह मन्त्र है -
'एको देवः सर्वर्भूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा
कर्माध्यक्षः सर्व भूताधिवासः साक्षी चेता केवलः निर्गुणश्च' - (६.११)
अर्थात, सभी प्राणियों में स्थित ईश्वर एक है, वह सर्व व्यापक. समस्त भूतों का अंतरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों में बसा हुआ साक्षी, परम चैतन्य, परम शुद्ध और निर्गुण है. यह तो हुआ इस मन्त्र का शब्दार्थ. परन्तु यह मन्त्र है बहुत रहस्यपूर्ण, ....आइये इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखें, संख्याओं में विभाजित कर गणितीय रूप में देखें -
१ - एको देवः
२ - सर्वर्भूतेषु गूढः
३ - सर्वव्यापी
४ - सर्वभूतान्तरात्मा
५ - कर्माध्यक्षः
६ - सर्व भूताधिवासः
७ - साक्षी
८ - चेता
९ - केवलः
१० - निर्गुणश्च
इस मन्त्र में हम देख सकते हैं कि पूरे मन्त्र को १ से १० की संख्या में विभाजित किया जा सकता है. संख्या का प्रारंभ १ से है और एक अंक की सबसे बड़ी संख्या ९ है और यह संख्या 'केवल' है. दसवी संख्या निर्गुण है जिसका गुणन नहीं हो सकता, वह शून्य है. शून्य स्वतः निर्गुण है ऊपर वाले १ पर इस निर्गुण शून्य को रख देने से १० संख्या स्वतः बन जाती है. इस १० में सम्मिलित '१' ब्रह्म और आत्मा दोनों का प्रतिधित्व करता है. इसमें '१०' नाम-रूपमय सृष्टि का वाचक है. इस '१' के अभाव में समस्त सृष्टि 'o' शून्य है. मृत है, प्रलायावास्था में है, मूल्यहीन है तथा '१' के साथ रहने पर वही मूल्यवान है, सजीव है. '९' अंक केवल है, पूर्ण है, अतएव '९' अंक जहां भी रहता है, अपने स्वरुप का परित्याग नहीं करता. अतः केवल है, अतः केवल वही रहेगा जो वस्तुतः है..
उदाहराणार्थ : ९ के गुणनफल का योग सदैव ९ ही होगा.
९ x १ = ९
९ x २ = १८, (१ + ८ = ९ )
९ x 3 = २७, (२ + ७ = ९ )
९ x ४ = ३६, (३ + ६ = ९ )
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इतना ही नहीं योग (+) और घटाव (-) की क्रिया में भी यह ९ अपने स्वरुप का परित्याग नहीं करता. आइये देखें कैसे -
(अ) - ९ + ८ + ७ + ६ + ५ + ४ + ३ + २ + १ = ४५,
(४ + ५ = ९)
(आ) - ९ ८ ७ ६ ५ ४ ३ २ १ कुल योग = ४५ (४ + ५ = ९)
(-) १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ कुल योग = ४५ (४ + ५ = ९)
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= ८ ६ ४ १ ९ ७ ५ ३ २ कुल योग = ४५ (४ + ५ = ९)
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इसीलिए उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म परमपूर्ण है, वह (अदः) और यह (इदं) दोनों ही पूर्ण है. उस पूर्ण में से पूर्ण को घटाने पर भी सम्पूर्ण ही शेष बचता है.-
.'ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते'.
इस दर्शन के अनुसार 'ब्रह्म' आदि, मध्य और अन्त, सभी काल में पूर्ण है. इस मन्त्र में निर्गुण और सगुण दोनों ही सिद्धांतो का, विचारधाराओं का अद्भुत मेल है. सृष्टि के प्रारम्भ में वह 'ब्रह्म' अकेला था, सृष्टि रचना के बाद भी, सब कुछ अपने अन्दर समेट कर एक '१' रहा भी..., और नहीं भी रहा...., वह अनेक '१०' बन गया.., जगत बन गया, सृष्टि बन गया. '१ ' विहीन '१०' (जगत) शून्य '०' है. निर्गुण है. एक '१' के साथ सम्मिलित रूप में वही '१०' ...है, सृष्टि है, ...सगुण है. ....परन्तु यह सगुण भी अंततः निर्गुण ही है....
- (१ + ० = १, अर्थात 'लौकिक जगत सत्य है')
(१ - ० = १, अर्थात 'पारलौकिक जगत सत्य है') और
(१ x ० = ०, अर्थात 'जगत असत्य है, आभास है').
यही इस 'ब्रह्म' का 'सगुण', 'निर्गुण', और 'सगुण - निर्गुण', उभय रूप का खेल है, वह विलक्षण है, अव्याख्येय और अनिर्वचनीय है, जिसे शब्दों में बाँधने के प्रयास में, गणित के सूत्रों में पिरोने के प्रयत्न में ज्ञानी -ध्यानी, संत-महात्मा और दार्शनिक से लेकर वैज्ञानिक तक सभी अनवरत उलझे हुए हैं..., अपनी-अपनी परिकल्पनाओं... और व्याख्याओं...और माडल ...के साथ.......