Monday, July 18, 2011

दर्पण: तीन अनुभूतियाँ

(१)
बार - बार क्यों देखते दर्पण?
देखो उसमे, अपना तुम अर्पण,
तन - मन में राग - विराग भरा,
क्या करे बेचारा यह- 'दर्पण'?

दर्पण को दोष क्यों देते हो?
क्यों बारम्बार रगड़ते हो?
दर्पण तो सत्य दिखलाएगा,
क्यों पीले - लाल तुम होते हो?

देखा जब गौर से दर्पण को,
उसमे न मिला कुछ उसका दोष.
सारा दोष तो अपना था,
अपने को समझते थे - 'निर्दोष'.

(२)

दर्पण को मत तुम साफ़ करो,
डालो उसपर मन का - 'रज'.
यहाँ तन के रज की बात नहीं,
डालो उसपर 'गुरु पद' का रज.

समझो न बेतुकी बात इसे,
जानो तुम बहुत ही ख़ास इसे.
तुलसी ने 'रज' से साफ़ किया,
इसी रज ने संत बना दिया.

जब तुलसी जैसा बन जाओगे,
फिर तो यही तुम भी गाओगे-
श्रीगुरु चरण सरोज रज
निज मन मुकुर सुधार,
बरनौं रघुबर विमल यश,
जो दायक फल चार.

(३)

यह रज मिलना आसन नहीं,
यह प्रेम गली में मिलता है,
जहां आग की दरिया बहती है,
और डूब के जाना पड़ता है.

जहां अहं को अपने मारना है,
सर्वस्व समर्पित करना है.
नैवेद्य शीश जब चढ़ता है,
तब जाके कहीं 'रज' मिलता है.

चारो फल जब मिल जाएगा,
जीवन में शान्ति-समता आयेगा.
जाओगे भूल तब यह -'दर्पण',
होगा तब लक्ष्य केवल - 'अर्पण'.