Monday, August 22, 2011
सोचो! फिर से उसदिन को सोचो !!
देशभर में, जगह - जगह पर,
गाँव-गाँव और शहर-शहर में
हाथ में कैंडिल लिए,
कहीं मौन - कहीं मुखर
इन जुलूसों में हैं -
सम्मिलित, बच्चे और बूढ़े,
लंगड़े-लूले, अमीर-गरीब
नर-नारियों का बड़ा हुजूम.
इस उमड़ते-घुमड़ते,
शांत जन सैलाब को केवल
जुलुस मानना, एक भूल है.
कैंडिल को कैंडिल कहना भूल है.
अरे!
अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति के विरुद्ध,
बच्चों ने चीखना-चिल्लाना छोड़ दिया,
और हो गए थे मौन, एकदम से मौन.
इस मौन को, इस निःशब्दता को,
इस रोष को, क्रोध को, इस तेवर को,
सन्देश विहीन मानना बड़ी भूल है.
इसमें सन्देश
मात्र उतना ही नहीं,
लिखा है जितना,
तख्तियों-बैनरों पर.
केवल उतना ही नहीं,
जितना...लिखा चिकने हाथ के
खुरदुरे छालों ने.
जितना लिखा,
पाँव में फटी बिवाइयों ने.
असली सन्देश तो
वह है जिसे,
दिल-दिमाग पर,
मजबूर आंसुओं ने,
लिखा है
अपने खून से,
दर्द की कलम से,
गहरे- घावों,
रिश्ते-जख्मों की लिपि में.
क्या होगा उस दिन?
जिस दिन हो जायेगी उग्र, यह जुलूस ?
टूटेगा उनके सब्र का तटबंध.
कौन रोक पायेगा,
उस ज्वाला को - ज्वार को?
उस दिन को सोचो!
फिर से उस दिन को सोचो !!
जब फूटेगी ज्वालामुखी,
जब...जब निकलेगा -
गर्म पिघला लावा और राख.
मचेगी एक भयानक
चित्कार.., हाहाकार..,
एक बार फिर...
उस दिन को सोचो!
फिर से सोचो!!
यूँ तो लोहा होता
बहुत कठोर और बेहद मजबूत,
लेकिन वह भी पिघलता है कैसे?
यह भी सोचो !!
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