(भाग- १)
घूमा हूँ खूब, इन शब्दों के अरण्य में
रचनाओं ने ले लिया अपनी शरण में.
तभी से उन शब्दों को तोलने लगा हूँ
अभीतक था मौन, अब बोलने लगा हूँ.
प्रश्न
और उत्तर दोनों ही, सम्मिलित स्वरलहरियों में गुंजित थे वहाँ, ‘शब्दों के अरण्य में’. इन स्वरलहरियों में ही खोया हुआ संवेदी मन अपने
में ही मस्त और आनंद के सागर में हिचकोलें ले रहा था... तभी सुनाई पड़ा – ‘भाव सुमन लिए हुये / नैवेद्य दीप सजे हुये / प्रेम की
पुष्पांजलि को / मैं किसे अर्पण करूँ?’ किसी ने सुझाया, इसे मर्यादा
पुरुषोत्तम राम को अर्पित कर दो. प्रतिवाद तुरंत आया, ‘राम!
तुम सर्व पूजित मर्यादा पुरुषोत्तम कैसे?’ वे तो स्वयं कठघरे में हैं अपने
ही बच्चों के प्रश्नों की अदालत में. आखिर इस प्रश्न का कोई उत्तर भी है क्या? ‘तुमने / कौन सा कर्त्तव्य वहन किया / हमारे लिय / क्या
तुम्हारी अयोध्या में / सिर्फ जंगल ही शेष थे / हमारे प्रसव को / ... हमारी माँ /
तुम्हारी अर्द्धांगिनी / आखिर उसको ही क्या / दे पाए तुम?. यूँ तो सीता ने
स्वयं राम पर आरोप तो नहीं लगाया किन्तु यह कसक और पीड़ा उनके मन में कहीं न कहीं आज
भी है – ‘मैं ये जानती हूँ मेरे राजा राम कि / सत्ता
और प्रभुता का विष बहुत मीठा है जहाँ जिन्दगी की बिछी विसात पर तुमने स्वयं अपने
ही मोहरे को पीटा है’. इतना ही नहीं, राम को लेकर आरोप तो माता सुमित्रा के
मन में भी है और वाणी में भी. नारी मन की सहज तुलनात्मक वृत्ति उनके मन के कोने से
निकल कर जिह्वा पर आखिर आ ही जाती है और कातर भाव में वह कौशल्या से पूछ ही तो बैठतीं
है – ‘नहीं समझ पाती जीजी / रक्ताश्रु तो मैंने भी / चौदह
वर्षों तक तुमसे / कम नहीं बहाए हैं / फिर मेरे दुःख को कम कर / क्यों आँका जाता
है / केवल इसीलिए कि / मैं राम की नहीं लक्ष्मण की माँ हूँ.’ इसमें राम स्वयं
सम्मिलित भले ही न हों, लेकिन युगबोध, युगआंकलन, घटनाओं का जिम्मेदार अंततः राम ही
बनते हैं.
फिर मन
निह्श्वांस छोड़ते हुये सोचता है, चलो प्रेम की यह पुष्पांजलि, अलौकिक प्रेम का पाठ
पढाने वाले, रासरसइया कान्हा को ही क्यों ना अर्पित किया जाय? लेकिन यहाँ कान्हा
के नाम पर भी प्रतिवाद कम नहीं है, उपालंभ है कान्हा पर – ‘महवार में डूबकर / मैं मीरा बनी थी / और तेरे युग को खिंच लायी थी /
पुनश्च / राजनीती के दमन चक्रों में / मेरा कोमल सखा भाव / एक बार फिर / रख दिया
गया विष के प्याले में / ..लोम हर्ष से कह उठी थी दुनिया / कि तूने विष को किया
अमृत / कुछ झूठी नहीं थी लोकश्रुति / विष क्या तेरा हाथ अमृत हुआ?’
मैं
इस प्रश्नों में ही उलझ उन्हें सुलझाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने सुझाव
दिया कि इसे भोले शंकर को अर्पित कर दो. आखिर श्रद्धा-भक्ति भाव से हाथ में पूजा
की थाल लिए कब तक खड़ी रहती, कब तक प्रतीक्षा करती मैं? औधडदानी-आशुतोष शिवशंकर को पुष्पांजलि
श्रद्धा-भक्ति भाव में अर्पित कर दिया. इस अर्पण के बाद भी प्रश्न था और वह प्रश्न
कम महत्पूर्ण नहीं था – ‘शिवरात्रि के रोज / पत्तों और फलों से / विरक्त कर दिया गया बेल का पेड़ / एक
स्पर्श के बाद / पत्तों फलों की / जगह थी / कचरे का डिब्बा’. मन सोचने लगा, सोचने क्या लगा,
सोचते-सोचते अब तो यह दिखने भी लगा- ‘श्मशानी निश्तब्धता
छाई है / उभरी दर्द भरी चहचहाहट / नन्हे – नन्हे परिन्दों की / शायद उजड गया था
उनका बसेरा / मनुष्य ने पेड़ जो काट दिए थे’. अचानक सुनायी दी मुझे चेतावनी
भरी आवाज – ‘रे मनुष्य! मैंने तुझे बनाया / तेरी
सुरक्षा के लिए पेड़ बनाये / पेड़ों का करके विनाश / क्यों कर रहा है / सृष्टि का
महाविनाश !. तभी दूसरी आवाज भी आई, जिसने मानव की नादानी, उसकी ऐष्णाओं की
परिणति और त्रासदी की बात दूसरे तरीके से बताई,- ‘जिसने
सुनाई उसे / सभ्य मानव की बर्बर कहानी / मीरा
से / सुकरात तक / फिर किस तरह काटे हमने / पहाड, जंगल / और आदमी का सर’. लगा
सोचने मैं; तो फिर किया क्या जाय? मानवमन तो संवेदी है, चिंतनशील है और भावनाओं के
प्रकटीकरण का प्रबल आग्रही भी .. तो ऐसा क्या किया जाय, जिससे मानव मन की तृष्णा
भी तृप्त हो जाय और प्राणवायु प्रदायिनी वन और प्राकृतिक सम्पदा का विनाश भी न हो?
... तत्क्षण ही आवाज एक समाधान के रूप में आयी – ‘जीवन
जब भी जटिल कठिन लगे / शून्य में खो जाओ / शून्य से फिर आरंभ करो / जीवन को नई
ऊर्जा / नई स्फूर्ति का अहसास / शून्य को अंकों में बदल देता है.
एक
अन्तः चेतना जगी, नई स्फूर्ति का एहसास भी हुआ. शून्य! अरे प्रलय ही तो शून्य है
और सृष्टि है अंक, चाहे वह एक हो या अनन्त. मूलरूप में संख्या केवल दो ही हैं- एक (१) और
शून्य (०). समझने और समझाने की दृष्टि से व्यावहारिक रूप में अनंत (∞) को इसमें भी सम्मिलित किया जा सकता है. इससे
सृष्टि की व्याख्या में सरलता होगी. परमतत्व एक (१) है; तत्वरूप में भी और इकाईरूप
में भी. इस परमतत्व का प्रकटन और विलोपन होता रहता है. प्रकटरूप में वह अनंत है,
गतिज ऊर्जा है और विलोपन (प्रलय) की स्थिति में वही शून्य है. प्रलयावस्था में यह
अनंत निष्क्रिय और अर्थहीन हो जाता है और तब केवल शून्य ही शेष बचता है. इस स्थिति
में कोई माप नहीं, कोई मान नहीं, कोई दृश्य नहीं, कोई सृष्टि नहीं, कोई दृष्टि
नहीं, कोई द्रष्टा नहीं. परन्तु अस्तित्वमान का अस्तित्व है, मूलऊर्जा विद्यमान
है- स्थितिज ऊर्जा के रूप में. इसके अस्तित्व को कहीं से भी नकारा नहीं जा सकता. अरे ये सारे अंक तो ‘शून्य’ और ‘अनन्त’
के बीच का विवर्त हैं. शून्य के साथ अंक जुड जाने से वह भौतिक रूप से मूल्यवान–रूपवान
हो जाता है, सगुण हो जाता है. यह सगुण तो निर्गुण में ही प्रतिष्ठित है. मृत्यु
इसीलिए बड़ी है किसी भी जीवन से. जीवन, इस मृत्यु में विश्राम पाता है और यह
प्रकृति और सृष्टि, प्रलय में, शून्य में. यही पुरुष और प्रकृति का खेल है.
प्रकृति यदि शक्ति है तो पुरुष शिव. शिव-शक्ति का युग्म ही तो शिवलिंग है,
प्रतीकात्मक विग्रह है अर्धनारीश्वर का.
प्रज्ञान और विज्ञान नितांत
विरोधी नहीं, वे तो पूरक हैं. ढूंढो रब को किसी अरण्य में, किसी यज्ञशाला या
प्रयोगशाला में; यदि शोध कार्य पूरी सच्चाई, ईमानदारी, निष्ठां और तन्मयता से हो
तो ये विधाएं एक ही निष्कर्ष तक पहुचती हैं, इसमें संदेह नहीं. आइंस्टीन प्रणीत प्रसिद्ध सूत्र E=mc2
में इस सिद्धांत ढूंढा जा सकता है. आइये देखें- E=mc2 को. यहाँ - (E= energy, m=mass, c=velocity of light). यदि यहाँ गति या क्रियाशीलता का मान शून्य (०)
हो जाय, तब इस गतिहीन अवस्था में E=m x (0)2 = 0
(शून्य)
होगा. लेकिन यहाँ शून्यता (०) का तात्पर्य अभाव नहीं है, केवल उसका मान शून्य है,
उसकी वैल्यू शून्य है. E (ऊर्जा) अब भी अस्तित्वमान है, स्थितिज
ऊर्जा के रूप में. यही प्रज्ञान विद्या का ‘शक्ति- सिद्धांत’ है. विज्ञान जगत में
‘ऊर्जासंरक्षण का सिद्धांत’ भी यहीं है.
इसका तात्पर्य यह कि ‘शून्य’ ही ब्रह्म है, अनन्त ही सृष्टि है और अंक ही ईश्वर है, रब है. ओह! कितने
घाट-प्रतिघात झेलने पड़ते हैं? रब बने रहना कितना कठिन है? उत्तर में संगीत लहरी एक
विशिष्ट आती है और अपनी बात बताती है – ‘रब बने रहना आसान
नहीं / असंभव को संभव बनाने से मुक्ति नहीं मिलती / एकबार भी चुके / तो प्रश्नों
के अचूक बाणों की शय्या पर रात गुजरती है / अखंड दीप / याद दिलाने को जकाए जाते
हैं / रब का दीया रब को दिखा कर / अपनी
पूजा की इति मानने वाले / रब को चैन से सोने नहीं देते हैं /... समय रहते संभल जाओ
/ और विचारों / जिसने स्रष्टि कि अद्भुत रचना की / वह सृष्टि के सारे स्रोत सुखा
दे / तब तुम क्या करोगे?.. नहीं ! ऐसा होने नहीं देंगे... ऐसा होने नहीं देंगे. नहीं ! नहीं !!.. .. ऐसा होने
नहीं देंगे... नहीं !!! ऐसा होने नहीं देंगे..
ईश्वर को पाना कठिन होता है- ज्ञानियों के लिए, विज्ञानियों के लिए..
वे तो ज्ञान–विज्ञान के मिथ्याभिमान में डूबे रहते है. लेकिन एक स्नेह भरा दिल, सेवा को समर्पित तन और माधुर्य छलकाता मन तो ढूंढ लेता है प्रकृति में ही ईश्वर को.
और कर ही देता है समर्पित अपनी भावभरी पुष्पांजलि को, उसके श्री चरणों में. तो
क्या निर्गुण-निराकार की पूजा-अर्चना निराकार मानसिक नहीं हो सकती? क्यों नहीं हो
सकती? सोच को बदलना होगा. मंदिर के महत्व को, उसकी सीमा को समझना होगा. मंदिर तो
अध्यात्मिक विद्यालय है. अध्यात्म बोध के बाद साधक भक्त के लिए मंदिर की
अनिवार्यता नहीं. मंदिर जाने में कोई हानि भी नहीं. बात केवल तोष-परितोष की है. तो
क्यों न भावनात्मक पूजा को प्रोत्साहित किया जाय? या पत्रं-पुष्पं को सीमित, मात्र
प्रतीकात्मक रूप में ही उपयोग किया जाय. जिससे मन को संतोष भी होगा, भक्तिभाव में
कोई आक्षेप भी नहीं आएगा और प्राकृतिक सम्पदा भी सुरक्षित रहेगी. स्व-संतुलन का विशिष्ट गुण प्रकृति में विद्यमान है जिससे प्रकृति थोड़े-बहुत
विनष्टि को संतुलित करती रहती है. भक्त अब प्रकृति में ही देखता है अपने ईश को,
अपने रब को... और अब वह स्व से ऊपर उठकर करता है यह मंगलकामना – ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ की.
क्रमशः
-डॉ. जयप्रकाश तिवारी
संपर्क:
९४५०८०२२४०