Tuesday, August 21, 2012

शब्दों के अरण्य में: चक्रमण - परिभ्रमण (भाग- ३)


घूमा हूँ  खूब, इन शब्दों के अरण्य में
रचनाओं ने ले लिया अपनी  शरण में.
तभी से उन शब्दों को तोलने लगा हूँ
 अभीतक था मौन, अब बोलने लगा हूँ.
 
      सच है दांपत्य और ‘प्यार में / कभी कोई खाली नहीं होता / प्यार हमेशा व्यस्त रहने का नाम है’. देखिये ना अभी-अभी जिस पुरुष-स्त्री सम्बन्ध, दाम्पत्य जीवन पर बात कर रहे थे, वह बात तो पूरी भी नही हो पायी थी कि कानों में सुनाई पड़ा, किसी स्त्री का एक निर्णयात्मक स्वर.. यह स्वर निर्णयात्मक तो था लेकिन उसमे बेबसी, हताशा, निराशा और किसी भंवरजाल से बाहर निकल कर एकला चलो की मजबूरी और छटपटाहट भी थी. इन शब्दों के गठन और प्रेषण शैली में दृढ़ता तो थी, मगर दिखावे की. कम्पनमान हृदय को आवेश की चादर से ढककर, एक कृत्रिम दृढ़ता के अतिरिक्तबल के साथ सुनाया गया किसी अतृप्त पत्नी का यह निर्णय - ‘आज मैं / मुहब्बत की अदालत में / खड़ी होकर तुम्हें / दर्द के सहारे / उस रिश्ते से मुक्त करती हूँ / जो बरसों तक हम दोनों के बीच / मजबूरी की चुन्नी ओढ़े / खामोश सिसकता रहा...’. एक औरत होने के नाते वह अच्छी तरह से जानती है कि – ‘पति से बिछुड़ी औरत / निगाहें नीची करके चलती है / अपने कलंक से झुक गह है उसकी गर्दन’. लेकिन बदलते युग के साथ इस अवधारणा के एक पक्षीय लबादे को वह ढोना नहीं चाहती अब, आखिर वह कब तक कुढती रहे, घुटती रहे?. वह भी जागरूक है और २१वीं सदी की शिक्षित एक महिला. नारी सशक्तिकरण की आबो हवा ने उसे एक नया बल नई सोच जो दिया है. लेकिन दूसरी और पुरुष पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसको भी देखना होगा? मैं देखता हूँ, यहाँ पुरुष मन तो एकदम हतप्रभ सा है यह अप्रत्यासित निर्णय सुनकर... वह सोचता है, उसने तो हमेशा अपने दायित्वों को निभाया, और प्रदर्शन भी किया है अपने नेह का, स्नेह का... भावनाओं का प्रदर्शन यदि छोड़ दिया जाय तो मानवमन जो प्रेम का अवगाहन करता है, आपस में उसका आदान-प्रदान करता है, वे भावनाएं तो एकदम उदास होकर केवल पतीक्षारत ही रह जायेंगी और वह मन बस यही बोल फूटेगा, इतना ही कहता रहेगा उदास मन से... कि ‘बात जब तेरी उठी / दर्द हो गए हरे / हो गए बयन निःशब्द / नयन ताकते रहे /.. रंग मेहदी देखकर / कसक अंतस् में जगी / याद भी गहरा गए / स्वप्न सालते रहे /.. नयन सागर में उठा / डूब साहिल भी गया / चिथड़े टुकड़ों में हम / स्वप्न बांधते रहे’.
       
      नारीमन पर पुरुषमन की इस वेदनापूर्ण सफाई का, अपनी पक्ष प्रस्तुति का, अपने एकनिष्ठ प्रेमी होने के शब्द-प्रमाण का क्या प्रभाव पड़ा? यह तो नहीं पता, लेकिन वह इस समर्पित शब्द-तर्क को कहाँ मानती है?... और पुरुष की एकनिष्ठता का यह भाव कितना सच्चा है और कितना गल्प? यह तो केवल दम्पति की अपनी अनुभूति ही बता सकती है. उसमे हम-आप आखिर कर भी क्या सकते हैं? लेकिन वह नारीमन इस पुरुषमन के प्रेम प्रदर्शन को अच्छी तरह जनता है, वह इसे स्वीकर भी करता है कि तुम मुझसे प्रेम करते हो, मुझे चाहते हो, छिप-छिपकर देखते-निहारते भी रहते हो. तू मेरे आंसू और उदासी तो क्या, तुझे तो किसी गैर की उदासी भी देख नहीं पाते हो. इतने नर्मदिल इंसान हो, इतना महान दृष्टिकोण है तुम्हारा. सब जानती हूँ मैं – ‘तुम्हे आँसू नहीं पसंद / चाहे मेरी आँखों में हो या किसी और के / चाहते हो हँसती ही रहूँ / भले ही / वेदना से मन भरा हो / .. कई बार महसूस किया है / मेरे दर्द से तुम्हे आहत होते हुये / देखा है तुम्हे / मुझे राहत देने के लिए / कई उपक्रम करते हुये’.

     लेकिन यहाँ विडम्बना यह है कि इतनी खुली स्वीकारोक्ति के बावजूद भी दाम्पत्य जीवन में इतनी खटास, इतनी जटिल-वेदना का प्रवेश कब, कहाँ और कैसे हो गया? यह बात तो मैं नहीं जनता, किन्तु इस तर्क में भी दम है और सच्चाई का पुट भी कि – ‘यूं ही अचानक कुछ नहीं घटता / अंदर ही अंदर कुछ रहता है रिसता / किसे फुर्सत कि देखे फुर्सत से जरा / कहाँ उथला कहाँ राज है बहुत गहरा’. अन्वेषीमन को एक संकेत मिल गया और वह निकल पड़ा इस राज को ढूँढने... और आखिर पा ही लिया उसने इस दम्पति कि आपसी दूरी, असंतुष्टि का गहराराज इस रूप में – ‘समझाते हो मुझे अक्सर / इश्क से बेहतर है दुनियादारी / और हर बार मैं इश्क के पक्ष में होती हूँ / और हर बार तुम अपने तर्क पर कायम’. तो यहाँ है ‘सपनों के महल’ और ‘जमीनी झोंपड़ी’ जैसे लंबी-चौड़ी खाई वाले सोच का बड़ा अंतर. कल्पना और यथार्थ का द्वन्द्व. पुरुष जिसके कन्धों पर कई भार है, जानता है वह अच्छी तरह कि भूखामन आखिर कब तक इश्क के सहारे परिवार की गाड़ी खींच पायेगा? नारीमन को शायद इस बात की या तो समझ नहीं.. या वह इसे समझना नहीं चाहती? बात जो भी हो, उसे अपने पति में प्रेम में पगे एक भावुक पति की अपेक्षा गृहस्वामी और सामाजिक कार्यकर्त्ता स्वरुप की झलक ही अधिक दीखती है. नारीमन स्वयं को समझते, समझाते.. समझाते.. समझा नहीं पाती.. वह अंतर्द्वंद्व में है- मन विरोध करता है, बुद्धि का- ‘कैसे कह दूं बेवफा तुमको?’ लेकिन बुद्धि फिर भी जोर मारती है और अंततः मन इस बुद्धि के चातुर्य से हार जाता है और हार कर, अंतिम अस्त्र के रूप में नारी उसे शाप दे देती है –‘जा तुझे ईश्क हो’. और अब यह शाप भी, वास्तव में शाप है, या शाप के नाम पर कोई वरदान? यह कहना नितांत कठिन है. शाप में तो हमेशा ही शापित के हानि की अपेक्षा होती है, चाहे वह हानि अल्प हो या दीर्घ. लेकिन यहाँ तो लाभ ही लाभ है, शापित को भी और शाप देनेवाले को भी. तात्पर्य यह कि यह दिखावे के रूप में यह ‘छद्म-शाप’ है जो सुधार और सकारात्मक दृष्टिकोण से किया गया एक सत्प्रयास ही है. जिसके द्वारा चाहता है वह नारीमन यह कहना कि प्यार का– ‘वो रिश्ता / उस जिस्मानी रिश्ते से / कहीं अधिक सगा होता है / जो अनुभूति से बनता है’.
   
      अब प्रश्न हैं, इस प्रयास से क्या पुरुष मन में ‘इश्क भाव’ जागृत हुआ? वह प्रेम की भाषा, प्रेम का स्वरुप, प्रेम का स्पंदन, प्रेम का निष्पंदन, कुछ भी समझ पाया? मैं इन्हीं लहरों में फँसा था कि कहीं कोने से शब्द-लहरों की आंधी सी उठी और मेरे सारे विचार उसी में उड़ गए. अब कोई स्वर, ध्वनि या आवाज यदि रह गयी तो केवल उसी ध्वनि की और उस ध्वनि में ही तो इस प्रश्न का यथेष्ट उत्तर समाहित था– ‘बताओ तो जरा / क्या-क्या नहीं कर डाला तुमने / किस-किस ग्रन्थ को नहीं खंगाल डाला / खजुराहो की भित्तियों में ना उकेर डाला / अजंता-अलोरा के पटल पर फैला मेरा / विशाल आलोक तुम्हारी ही तो देन है / कामसूत्र की नायिका के रेश-रेशे में / मेरे व्यक्तित्व के खगोलीय व्यास / अनन्त पिंड कई-कई तारा मंडल / क्या कुछ नहीं खोजा तुमने / पूरा ब्रह्माण्ड दर्शन किया तुमने / .. पर हाथ ना कुछ लगा / करते रहे तुम मर्यादाओं का बलात्कार / सरेआम हर चौराहे पर / फिर भी ना तुम्हारा पौरुष तुष्ट हुआ / जानते हो क्यों? / क्योकि तुमने सिर्फ बाह्य अंगों को ही / स्त्री के दुर्लभतम अंग समझा / और गूंथते रहे तुम उसी में / अपनी वासना के ज्वारों को /.. और श्राप है तुम्हे / नहीं मिलेगा कभी तुम्हे वरदान / यूं ही भटकोगे / करोगे बलात्कार / करोगे अत्याचार / ना केवल उसपर / खुद पर भी / जब तक नहीं बनोगे अर्जुन /.. बेशक मिलता रहे अर्द्धविराम / मगर तब तक / नहीं मिलेगा तुम्हे पूर्ण विराम’.
        
     यह शब्दलहरी पुरुष को उसके चिंतन और चरित्र का दर्पण दिखाती है. उसके कलुषि विचारों का संस्कृति के नाम पर वीभत्स कृतियों का. लेकिन यह दर्पण देखकर भी यदि समझ न आये तो.. तो उसे वही बनाना पड़ेगा जो नारी को अपेक्षित है, यानि प्रेम का. और प्रेम-प्यार-इश्क तो वही कर सकता है जो स्वयं ही प्रेमी हो. इसलिए यदि उसे शापित भी करना पड़े कि ‘जा तुझे इश्क हो जाय’ तो यह कहीं से अनुचित भी नहीं. और जब इस शाप का भी कोई प्रभाव न पड़े तो... तब तो उसे कहना ही पड़ता है, प्यार कि इस अदालत में – ‘मैं उन गम हुये पलों की / जंग छेडने नहीं आई यहाँ / न पानी की कमी से सूख गई नदी का / हवाला देने आई हूँ / उखड गई साँसों को अब रफ़्तार की जरूरत नहीं / ये तो बस मुक्ति मांगतीं हैं /.. हाँ! आज मैं / मुहब्बत की अदालत में खड़ी होकर / तुम्हे हर रिश्ते से मुक्त करती हूँ’. उधर मुहब्बत की अदालत से मुक्त पुरुष मन में भी शायद इश्क अब जागृत हो गया है, आंतरिक संवेदनाएं उछाल मारने लगी हैं. तभी तो वह सोचता है –‘कहने भर से क्या कोई अजनबी हो जाता है / उछाल मारते यादों के समंदर / गहरी नमीं छोड़ जाते हैं किनारों पर /.. आसान तो नहीं होता / हवा के रुख को मोडना / और जबकि हमारे बीच कुछ नहीं / सोचता हूँ कई बार / क्या सच में कुछ नहीं हमारे बीच’. तभी एक लहर और आती है, समस्या सुलझाती है –‘ये बेनाम रिश्ते हम नहीं चुनते / ये तो आत्मा चुनती है / और आत्मा जिस्म नही / आत्मा चाहती है’.

                                       क्रमशः ....
                                     डॉ. जयप्रकाश तिवारी
                                     संपर्क सूत्र: ९४५०८०२२४०


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Shabdon Ke Aranya Mein

(Hardcover, Hindi)
by 

Rashmi Prabha

 (Edited By)
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Publisher: Hind Yugm (2012)
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