Thursday, March 25, 2010

महिला सशक्तिकरण : कुछ सांस्कृतिक प्रश्न

एक गुनगुनाता हुआ शर्मिला सा सुकोमल नारीमन, यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए. स्तुत्य है, इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास. सम्प्रेषण, प्रेक्षण की यह कोपविद्या, नारी के लिए है, सुगम, सरल; साथ ही लाता है मनुहार का अवसर. परन्तु ....एक चुप हो चुके पुरुष मन को, मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का नारी प्रयास क्या अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों? सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुषकी संज्ञा; आखिर है क्या? क्रूरता या कायरता? कौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में वल्लियों उठ रहे कलोल और कोलाहल को? शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार- भाटा को? क्या यह अवमूल्यन नहीं,चेतना का, बौद्धिकता का? चिंतन की वेदना का? संवेदना की स्वतन्त्रता का?

नारीमुक्ति विमर्श की धारा, उसके सशक्तिकरण की विचारधारा, समय और प्रस्थितिनुसार संवेग और स्वरुप धारण करे, यह तो समझ में आता है, किंचित भी मतभेद नहीं उससे; यथोचित उत्साहभरा समर्थन है उसे, वे तो दूसरे हैं जो इसका विरोघ अपनी क्षुद्र लिप्सा के लिए करते रहें है, आज भी कर रहे हैं, छोडिये उनकी बात... प्रश्न यह है कि स्वतन्त्रता के नाम पर अपने तन-बदन को,बाजारू चीज बना देना, आखिर है क्या? स्वतन्त्रता या स्वच्छंदता? साथ ही नारी स्वातंत्र्य के नाम पर, नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति की बात, कहीं से भी नहीं आती समझ में यह मानवजाति का विलोपन है या पशुता का उन्नयन? नारी को प्रकृति प्रदत्त अधिकार, सृजन है; विनाश नहीं. मानवजाति का विनाश तो नारीजगत का घोर-अपमान है प्रकृति और प्रवृत्ति से विद्रोह है, यदि नारी प्रकृति प्रदत्त और संस्कृति प्रदत्त अधिकारों की सुरक्षा नहीं कर पायी, तो संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा क्या रक्षा कर पाएगी?

नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न, आज सर्वाधिक विचारणीय प्रश्न है, इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा. आचार विचार में यह परिवर्तन, सैद्धांतिक शब्द विन्यास के कारण है अथवा अर्थदुर्बोध के कारण? बिना इस मर्म भेदन के,स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या? अथवा आज आवश्यकता उन मूलभूत सिद्धांतो के पुनर्विश्लेषण - पुनर्व्याख्या की है. भ्रम और विभ्रम की,यह दुरावस्था सशक्तिकरण और नारी मुक्तिआन्दोलन के नाम पर, कहीं बन न जाये सामजिक कलह का कारण? टूटते दांपत्य, बढ़ते तलाक, विखरते संयुक्त-परिवार पर, क्या यह आन्दोलन ध्यान देगा? हस्तिनापुर के द्युतक्रीडा से उठा यह प्रश्न, अनेक मोड़ पार करता हुआ,आज इस अवस्था में भटक गया है. धन की चकाचौध में आज स्वतंत्रता का एक विकृत रूप;'नारी देह स्वतन्त्रता' के रूप में दीख रहा है. यह 'देह प्रदर्शन' और 'देह उपभोग' अब किसी दबाव या प्रभाव में आकर नहीं, यह पैसे के लोभ में नारी का स्वयं का निर्णय है. जो कार्य स्त्रियाँ, कभी दबाव या मजबूरी में करती थी, आज शौक में कर रहीं है. धन की महिमा ने 'नारी की महिमा' की क्या गति की है? कैसी क्षति की है? क्या यह आन्दोलन इसका मूल्यांकन करेग?

न जाने क्यों मन सशंकित है, कहीं बन न जाये भावी पीढ़ी ...बलि का बकरा? अथवा खड़ा न हो जाये ,प्रतिक्रियावाद का खतरा? क्योकि जिस अस्तित्ववादी विचारधारा के पीछे यह आन्दोलन है, भाग रहा, वह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे विवाह संस्कार को नकार रहा. नहीं होंगे विवाह, भावी पीढ़ी कहाँ से आएगी? बिन विवाह, सामाजिक रिश्ते क्या टिक पायेंगे? और बिन रिश्ते हम कहाँ जायेंगे? हम या तो मानव से च्युत होकर पशु कहलायेंगे...... पशुवत जीवन बिताएंगे....अथवा इस धरा को मानवविहीन बनायेंगे. इस प्रश्न का जवाब नहीं है इस आन्दोलन के पुरोधा और प्रथम अंतर्राष्ट्रीय चेयर परसन 'सिमोन दी बाउवा के भी पास. कौन सा उपचार श्रेयष्कर होगा? श्रीमान! क्या आप भी कुछ सुझायेंगे? और यदि आज चुप रहे, तो निश्चित जानिये,इस समस्या को और जटिल ही बनायेंगे..


नारी स्वाधीनता की परिकल्पना कोई पश्चिम की बपौती नहीं. अनादि काल से बही है यहाँ - यह नारीस्वाधीनता की एक धारा. जो प्रतीक - प्रतिमानों में गुम्फित है यह, उधार की कठौती नहीं. सती का हठ, उनका यज्ञाग्नि प्रवेश नारी स्वातंत्र्य और अधिकार का प्रथम उदाहरण है. सावित्री का सत्यावान-वरण, सीता का बन गमन, मीरा, राधा का अनुरक्त अनुराग. नारी स्वाधीनता का ही है परिचायक. परन्तु इसमें कहीं भी दांपत्य से दूरी नहीं. दुराव टकराव तलाक नहीं मनुष्यता, मानवता, सामाजिकता का ह्रास नहीं. मानव समाज मानव सृष्टि को कोई खतरा नहीं, सृष्टि संरचना को पुष्ट ही करता है यह अधिकार. आज उसी अधिकार हेतु आन्दोलन क्यों? चाहिए यदि वास्तविक अधिकार, आंशिक नहीं सर्वांश तो वापस लौटना होगा. पाश्चात्य शैली नहीं, अपनी संस्कृति को अपनाना होगा, उलटना होगा इस धारा को. और धारा के उलटते ही होगा चमत्कार, न कोई शोर - शराबा !, न चीत्कार !!. धारा अब बन जाएगी - "राधा" . और "राधा" में रूपांतरण होते ही, कान्हा हो गया वश में, ....अब गोकुल..... तुम्हारी, ...मथुरा ......तुम्हारी......., द्वारिका तुम्हारी......अब सब कुछ.... तुम्हारा......., कान्हा तो है प्रेम से हारा. सर्वस्व छोड़ अब ;कुछ' के पीछे,भागना क्या? मणि को छोड़ अब तुच्छ के पीछे नाचना क्या?

संतोषप्रद और गर्व की बात यह है कि,महिला राष्ट्रपति और महिला स्पीकर, दोनों भारतीय संस्कृति की संवाहिका है, पोषिका हैं, लेकिन मूल रूप में इस प्रश्न पर नारी जगत को ही सोचना होगा. हित उनका किसमे है? कहाँ है? उन्हें चाहिए क्या? मिल क्या रहा? और नारी मुक्ति आन्दोलन धारा, सशक्तिकरण के नाम पर किधर जा रहा? हमें और भी गर्व होगा, यदि इन्हीं की भांति भारतीय संस्कृति की सम्वाहिकाएं ही संसद में बैठे; ३३% नहीं भाई, ५०% की संख्या में बैठे. परन्तु अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित और संरक्षित रखें. "अर्ध-नारीश्वर" की सत्ता में विश्वास रखने वाली भारतीय संस्कृति में, पुरुष और नारी का भेद कहाँ - "नारी पुरुष पुरुष सब नारी, सब एको पुरुष मुरारी".