शब्द यदि,
शब्द बनकर
ही रह गए
अर्थ यदि,
अर्थ तक ही
सिमट गए
तो सिसक उठेंगी,
संवेदनाएं हमारी.
फफक पड़ेंगी
ये वेदनाएं सारी.
इन शब्दों को
वेदनाओं - संवेदनाओं के
सागर में बह जाने दो.
पहचान तो
उन्हें लेंगे ही,
अनुभूतियों को
पास तो आने दो.
ध्वनिओं को,
अक्षरों को, वर्णों को
विकसित होने दो,
और खिलने दो.
परिपुष्ट होने के लिए
उसे अभी विचरने दो.
तन और मन दोनों से
स्पर्श करना चाहता हूँ.
ध्वनियों को,
अर्थ और भावार्थों को.
मात्राओं-अनुनासिक
और अनुस्वारों को.
उनके संकेत
और प्रतीकों को,
उनके भाव भरे
लोक गीतों को,
उन्ही का एक
मृदुसहचरी बनकर.
अब तक तो
जो कुछ भी जाना -
वह नैमिष्य के
अरण्य में जाना.
और आज..
परमाणुओं के अरण्य में,
कुछ नहीं, बहुत कुछ
ढूंढता हूँ मैं.
जिसे कहते हैं
अरण्य हम सब,
चिदणुओं का
समूह है वह तो.
चिदणुओं की गांठों को
अब खोलना चाहता हूँ.
शब्दों के अर्थ तक
सीमित न रह कर,
शब्दों की समग्र
ग्राह्यता चाहता हूँ.
ग्राह्यता चाहता हूँ.
अरण्यों से एक
अनुराग सा अब
हो गया है मुझे.
अब अरण्यों में ही ...
बस जाना चाहता हूँ .
और चिदणुओं के साथ
और चिदणुओं के साथ
खूब खेलना चाहता हूँ
नये - नये शब्दों का
सृजन चाहता हूँ.
नये - नये शब्दों का
सृजन चाहता हूँ.
चिदणु = चेतन अणु, अणु में भी चेतना होती है, यह अलग बात है की इनमे वह सुषुप्तावस्था में होती है.