Tuesday, January 20, 2015

मैं हूँ एक राही पथ का अपने

मैं हूँ एक राही पथ का अपने
इसी पथ पर देखे कुछ सपने
करने साकार उसे निकल पड़ा हूँ
देखा नहीं साथ कितने हैं अपने,
मैं वो राही जिसने कभी न जाना ...
होता क्या है,पथ पर रुक जाना
सीखा नहीं, कभी सर को झुकाना
झुकता यह वहीँ जहाँ इसे झुकाना
नहीं चिंता, मंज़िल मिले, न मिले
मैं तो यह जानता, अब रुकना नहीं
चाहूँ भी रुकना यदि कभी तो चेतना
राह में मुझको नहीं रुकने ये देगी
चरमरा के जी रहा, पर चल रहा हूँ
मर-मर के जी रहा , पर चल रहा हूँ
कहेगी क्यादुनिया, नहीं मैं जानता
किन्तु स्व को तो हूँ मैं पहचानता
पहचान ही सम्बल है मेरा एक मात्र
पहचान ही कारण है मेरी गति का
कुछ को लगता है, मैं सो रहा हूँ
और लगता कुछ को, मैं रो रहा हूँ
क्या पता उनको कि इस राह में
हंसकर रोना, रोकर हँसना, पड़ाव है
यात्रा है यह, नहीं कोई ठहराव है।

डॉ जयप्रकाश तिवारी