भार यह मन फिर क्यों ढोता है?
प्रिय की डांट भी लगती प्यारी,
प्यार भी उनका क्यों चुभता है?
प्रिय की कुटिल हास्य में बांकपन,
तकरार में लाड का रूप दीखता है,
उनकी स्नेहमयी वाणी भी आखिर,
दिल में तीर सा क्यों चुभता है ?
प्रिय की डांट से सुमन सा झरता,
निवेदन भी उनका कड़वा लगता,
दिल मेरा तो एक है फिर भी,
दोरंगी बात है वह क्यों करता?
क्या चिंतन है मेरा दोषपूर्ण?
या न्याय मेरा ही कलुषित है,
लेकिन अनुभूति की दर्पण ने,
क्यों दो - दो बिम्ब दिखाया है?
क्या दिल मेरा ही है बेईमान?
बेंच दिया जिसने अपना ईमान?
लेकिन बेईमान कहाँ करते हैं?,
इस तरह दिश अपना स्वीकार?
पक्ष - विपक्ष तो मैं ही हूँ खुद,
क्या न्याय स्वयं से कर पाउँगा?
कर न सका यदि न्याय स्वयं से,
तो नजरों अपनी ही गिर जाउंगा.