Saturday, January 28, 2012

एक बार पुनः झंकृत कर दो माँ!


एक बार पुनः झंकृत कर दो माँ!

एक बार पुनः झंकृत कर दो माँ!,
वीणा की अपनी सु-मधुर तान.
हे वीणा पाणि! हे हँस वाहिनी !
हे श्वेत वसना! हे जगत व्यापिनी!
              
उर मेरे कालिमा जो है बैठी,
धारण करे वह. श्वेत परिधान
परिधान लगे न कालिमा कोई,
जगा देना उर, ऐसा कुछ ज्ञान
             
अब तक तो यूँ ही भटकता रहा,
मरुस्थल से अन्तः स्थल तक.
जीवन को व्यर्थ गवाया मैंने,
कुछ होश न आया मुझे अबतक.
            
बारम्बार फिसलता हूँ फिर,
झाड धूल, फिर चल पड़ता हूँ.
कोई मार्ग नहीं अब मुझे ढूंढना,
दिखला दो, मझको निज धाम.
            
जान नहीं पाया हूँ अब भी,
शब्द - अर्थ - वाणी का ज्ञान.
अपनी वीणा के वाणी से
आज करा दो मुझे यह ज्ञान.
            
हे मातु शारदे! मुझे यह वर दे
आऊँ सदा इस राष्ट्र के काम.
अपनी संस्कृति भूल न जाऊं,
प्रकृति से कभी मैं न टकराऊँ.
           
नव पल्लव सा, कर दे यह जीवन,
बने विचार, ज्यों नदी- बाग़- वन.
अंतर मन प्रखर ज्योति जला दे!
वीणा स्वर के कुछ राग बता दे!
       
हे सरस्वती माँ!  हे मातु शारदे! 
हे वीणा पाणि! हे हँस वाहिनी !
हे श्वेत वसना! हे जगत व्यापिनी!
हे आदि शक्ति!  सर्वर्त्र व्यापिनी!



चित्र, कृति या विकृति?



आखिर क्या है यह - 

चित्र, कृति या विकृति?
कला या मन की कालिमा?
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता?
या संवेदनाओं का दुरुपयोग?
यह अरूप का रूप है या 
अपने मन का कुत्सित रूप?