Wednesday, March 11, 2015

हमे ‘कन्या-भ्रूण’ बचाना है

शिशु के लिए सुरक्षित सर्वाधिक,
ममता का आँचल, माँ की गोद ।
ले चाकू - कैंची हाथ मे आज तू, 
चाहता विकृत करना माँ की कोख
यह ‘कली’ क्यों बन गयी कील ?
क्यों चाहता इसे तू जाना लील ?
है तेरे ही खून का अंकुरण यह तो,
तेरे हवन-कुण्ड का सुरभित फूल ॥
क्या भूल गया तू, इसी के लिए
खाई हैं ठोकरें, दर दर है भटका ।
क्या बचा है कोई डॉक्टर मंदिर
दरगाह, जहां तूने सर नहीं फटका ॥
बेटा – बेटी मे इतनी भेद ? अरे!
यह तुम कह रहे जो सभ्य कहलाते ।
खुल गयी सारी है अब पोल-पट्टी,
अच्छा होता असभ्य कहलाते ॥
टुकुर - टुकुर क्यों देख रहा मुझे ?
इंसान नहीं, आज शैतान बना तू ।
किसने किया तेरी विकृत सोच ?
चल आज यही बात बतला दे तू ॥
न घूर के देख इस तरह मुझे,
अब मैं कारगार तुझे पहचाऊंगा ।
तूने किया अपराध है बहुत बड़ा,
इसकी सजा तुझे दिलावाऊँगा ॥
जा! जाकर क्षमा मांगो उससे,
तेरी कली कों जिसने आश्रय दिया है ।
केवल भार्या नहीं, माँ है अब,
अब माँ का पावन पद धारण किया है ॥
जमाना नहीं समझता, न समझे,
कल तो समझना ही है उसे ।
मानवता ही नहीं, ‘अस्तित्व’ संकट मे,
आज यह बात समझना है तूझे ॥
समस्या यह समाज मे उठकर,
बिगड़ते लिंग-अनुपात के रूप मे आया है ।
अभी भी समय है, हो सकता है
सम्यक निदान, बस ‘कन्या-भ्रूण’ बचाना है ॥
बस ‘कन्या-भ्रूण’ बचाना है, बस ‘कन्या-भ्रूण’ ... ॥
डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी