हाँ भाई! सच है यह,
इस गुह्य मौन को तोड़ कर
ध्वनियों की बाँहे मरोड़कर
शब्दों की परिधि फोड़कर
नए अर्थ, नयी अभिव्यक्ति
हेतु अब छटपटाता हूँ मैं.
इन रूढ़ियों को अब,
छोड़ता और तोड़ता हूँ मैं.
नयी चेतना, नए सन्दर्भों से
उसे अब जोड़ता हूँ मैं.
जोड़ता रहा -
रही है जोड़ने की
सुदीर्घ परंपरा हमारी.
इसलिए पड़ गयी हैं गांठे जहां,
उन गांठों को अब खोलता हूँ मैं.
नयी परंपरा को, प्राचीनता से
नीति - तर्क - युक्ति से,
विज्ञान और प्रज्ञान से,
फिर उसे जोड़ता हूँ मैं.
जनता हूँ तथ्य यह-
सभी नवीन उपयोगी नहीं,
प्राचीन सभी त्याज्य नहीं.
विसर्जन और सृजन,
निर्माण और ध्वंश,
नितांत विरोधी नहीं,
पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध
दप पक्ष हैं - प्रकृति के,
इस प्यारी संस्कृति के.
गति के इस प्रवाह को,
लेखनी की नोक से,
इस तत्त्वदर्शन को ही
लिखता रहा हूँ मैं.
वाणी रही हो हमारी,
भले ही मौन या मुखर,
सत्य को ही अभिव्यक्त
करता रहा हूँ मैं.
लिखता रहा-
लेखन की परंपरा हमर,
परंपरा बढाता रहा,
एक दिया दिखता रहा.
जलता रहा, और जलाता रहा.
जलना, यह ज्योति प्रकीर्णन,
रास नहीं आया बहुतों को.
कोसता रहा जग-
व्यक्तिवादी, अहंकारी
प्रतिक्रियावादी, कह के.
पथ रोकता रहा -
वह आगे बढ़ - बढ़ के.
पथ रोकने दो उनको-
अब रुक नहीं सकता,
न कोई रोक सकता है.
अंतर जो चेतना जगी
उसका ज्वार तीव्र है.
खुद भटक नहीं सकता,
वे भटका नहीं सकते.
कैन अटक नहीं सकता,
वे अटका नहीं सकते.
ऐसा ज्वार बन गया हूँ
जो भाटा बन नहीं सकता.
उर में भावनाओं का,
मन में संवेदनाओं का
उदगार तीव्र है.
अंतर जो चेतना जगी
उसका ज्वार तीव्र है.
जो तीव्र है उदगार-
वही शक्ति है मेरी.
जीता रहा जो अब तक
यह भक्ति है मेरी.
जीऊंगा जब तलाक
बस, इस समष्टि के लिए.
नहीं है जगह विशेष,
किसी व्यष्टि के लिए.
विशेष को अशेष में
बदल न दूं जब तलक,
पड़ती रहेगी आहुति
इस आत्म यज्ञं में.
दोलता रहा हूँ अब तक -
स्मृतियों - लोकेषणाओं
के बीच लोलक बन के.
गतिशील हुआ आज हूँ
मैं बोध के पथ पर.
बोध के इस मर्म को.
इस तत्त्व को, इस प्रेम को.
इस सत्व को, इस सत्य को;
अब ढूंढता नहीं,
इसको अब बांटता हूँ मैं.
अरूप सत्य को
बनाकर प्रेम रूप मैं,
भावना विश्वबंधुत्व की,
इस धरा पर पुनः
लाना चाहता हूँ मैं.
अब ढूंढता नहीं,
इसे बांटता हूँ मैं.
अब ढूंढता नहीं,
इसे बांटता हूँ मैं.