एक ऐसा समाज, ऐसा राष्ट्र,
जो बसता है सितारों के पार.
जो दीखता है बस ख़्वाबों में,
परियों की कथा-कहानियों में.
नीति शास्त्र के चिंतन-वचन में,
आदर्शवाद की परिकल्पना में,
सजाई रंगोली और अल्पना में.
क्या इसका सृजन -
धरा पर नहीं हो सकता?
यदि नहीं तो क्यों?
और यदि हाँ तो कैसे?
आपके मनमे भी तो उठते
होंगे अनेक प्रश्न हमारे जैसे?
यदि प्रश्न है तो उत्तर भी है,
बिना उत्तर के प्रश्न कैसे?
समीक्षक हो तो लिखो न एक समीक्षा.
यदि परीक्षक हो तो लो न एक परीक्षा.
हमारे इस आध्यात्मिक तट बन्ध की.
सन्नाटे के इस रोचक सुमधुर छंद की.
प्रगति के इस घनघोर पतन की.
पतन के उल्लेखनीय प्रगति की.
हमारे राजनैतिक द्वेष- दुर्गन्ध की.
इस सामजिक सांस्कृतिक छंद की.