Saturday, October 30, 2010

ब्रह्माण्ड की प्रथम दीपावली







"....तम आसीत् ...तमासा गूढं अग्रे...न सत आसीत् .. न असत आसीत्...रजः न आसीत ...न व्योमा ...न मृत्यु आसीत ...न अमृत आसीत ...." .





नासदीय सूक्त के इन खण्ड पंक्तियों का भाव यह है कि...तब सृष्टि के पूर्व, था केवल सघन ..घनीभूत ..अँधेरा...तम ..ही ..तम ..नीरवता - नि:शब्दता का ही साम्राज्य था वहाँ. .....तब शान्ति भी ....डरावनी शान्ति सी ..लग रही थी, उस घोर गहन अन्धकार में ...... जहां नाम - रूप - संज्ञा - सर्वनाम - विशेषण - विशेष्य ...सभी का एकदम अभाव. क्रियाशीलता भी कार्य से विरत होकर निष्क्रियता की मोटी चादर ओढ़े प्रगाढ़ निद्रा में कहीं पड़ी सो रही थी. श्वांस -प्रश्वांस भी तो नहीं था वहाँ . सत्य-असत्य , जन्म-मृत्यु से परे ...एकदम स्तब्ध कर देने वाली सन्नाटा -... कुहासा - कालिमा - अन्धेरा ही फैला हुआ था दूर-दूर तक....इसे 'शून्यता' तो नहीं कह सकते, हाँ इसका गणितीय मान 'शून्य' ही था ...क्योकि समस्त 'ब्रह्मांडीय ऊर्जा' स्थितिज ऊर्जा में संचित और संरक्षित थी. नासदीय सूक्त का (2 श्लोक ) द्रष्टव्य -

नासदासीन्नोसदासीत्तादानीं नासीद्रजो नो व्योमापरो यत |
किमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नम्भ: किमासीद्गहनं गभीरं || १ ||

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्याऽआह्नऽआसीत्प्रकेतः |
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्नपर: किन्चनास || २

वहाँ केवल और केवल एक 'अकेला चैतन्य' जिसे "तदेकं" कहा गया है, स्वयं में ही समाधिस्थ था. - "तत एकं अवातं स्वधया आसीत". उससे परे कुछ भी न था - ''तस्मात् - अन्यत - किंचन परः न आस' . पवन - पानी - ऊष्मा ...कुछ भी तो नहीं था. चैतन्य की शान्ति भंग हुई..उसने तप किया, चिंतन किया - यह प्रथम क्रिया थी. उसने संकल्प किया और कार्य प्रारंभ हो गए; यह दूसरी क्रिया थी, ...'कामः तत्र अग्रे समवर्तत'. अन्धेरा छटा, प्रकाश पुंज फैली, प्रकाश और ऊष्मा की परस्पर अभि क्रिया से 'सलिलं' / 'आर्णव' (जल) की उत्पत्ति हुई. उस जल में चैतन्य ने अपनी कामना का बीजारोपण किया. कामना जल में 'अंडा' रूप में 'तैरती दृष्टिगत हुयी. उसी प्रथम सृजन को को 'ब्रहमांड-बीज', गर्भ, 'Universe Egg' ..इत्यादि नामों से विभिन्न ग्रंथों में वर्णित किया गया है. वह अंडा सुदीर्घ काल तक जल में पड़ा रहा. पुनः तदेकं की समाधि से जाग्रति हुयी. कामना रंग लाई, अब अंडा सुवर्णमय, स्वर्णिम हो गया हो गया, हिरण्मय हो गया, उसकी कान्ति हिरण्यं सी रमणीय हो गयी. अब इसे कहा गया 'हिरण्यगर्भ' या 'Golden Egg' ..उस हिरण्यगर्भ' के 'स्फोट' से उसमे अंतर्भूत सभी प्रकार के संचित तत्त्वों / पदार्थों का दूर - दूर तक दसों दिशाओं में प्रक्षेपण हो गया. यह था ब्रह्माण्ड का प्रथम - 'पटाखा'....भरपूर ...जोरदार धमाका... धमाके से बिखरे छोटे -बड़े पिंडों ने - पिंड - गृह - नक्षत्र - तारे और निहारिकाओं का रूप धारण किया, पञ्च महाभूत अस्तित्व में आये और 'पुरुष" सिद्धांत से' विराट प्राकट्य हुआ, जिसकी प्रथम पहचान 'प्रजापति सिद्धांत' के रूप में हुयी, बाद में आगे चलकर थोड़े - बहुत परिवर्तन - परिवर्द्धन के बाद इसे ही 'ब्रह्मा सिद्धांत' और 'विश्वकर्मा सिद्धांत' भी कहा गया. विज्ञान / अंतरिक्ष विज्ञान कहता है इस सृष्टि का कारण महाविस्फोट 'Bigbang' है., अध्यात्म कहता है - 'स्फोट' है. बातें वहीँ हैं, जोर का धमाका. विज्ञान का धमाका आहट ध्वनि (घर्षण प्रादुर्भूत) है, जबकि अध्यात्म का धमाका 'अनाहत ध्वनि' है.यही 'ओमकार' है. घनीभूत अंडे का फूटना , प्रकाश और स्वर्णिम पदार्थों का, चकाचौध कर देने वाला प्रकीर्णन, प्रक्षेपण - प्रकाशोत्सव. यही है - 'ब्रह्माण्ड की प्रथम दीपावली'. अभियान था - अन्धकार से प्रकाश की ओर यात्रा - तमसो माँ ज्योतिर्गमय. इसे सार्थक बनाया , असत से सत की ओर उन्मुख होने की ललक ने - 'असतो माँ सदगमय', और जिसका अंतिम उद्देश्य था - मृत्यु को नकार कर अमृतत्त्व की प्राप्ति - 'मृत्युर्मा अमृतंगमय. इस सन्देश को, इस उद्देश्य को फैलाने का कार्य दीपक को है. हां चौकठ का दीपक, कलश का दीपक, यज्ञ का दीपक ...यही दीपक, जलता दीपक - ज्ञानरुपी पुरोहित है -'अग्निमीले पुरोहितं'. दीपक लघु रूप है और सूर्य - तारे विराट रूप है दीपक का. सूर्य पूजन का "छठ पर्व' यदि इसी परिप्रेक्ष्य हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.








इस ज्ञान प्रकाश का प्रभाव क्या हुआ? पहले जो अँधेरी कालिमा थी, चारो दिशाओं, दसों दिशाओं में व्याप्त होने के कारण चतुर्भुजी - अष्टभुजी - दसभुजी क़ाली - कराली - कपालिनी और डरावनी थी, वही अब दिव्य ज्ञान के आलोक में 'गोरी' हो गयी है, 'गौरी' हो गयी है. गिरिजा - शैलजा - शैलपुत्री बन गयी है. क्षीरसागर निवासिनी कमला - कल्याणी हो गयी है....लक्ष्मी - महालक्ष्मी - वैभव लक्ष्मी हो गयी है. लक्ष्मी तो सागर पुत्री है, सलिल तनया है, उसी की आराधना - वंदना पूजा का त्योहार है - 'प्रकाशपर्व, ज्योतिपर्व दीपावली'. लक्ष्मी को पाना है तो सागर में गोता लगाना होगा. इसके लिए सत्साहस, बुद्धि - विवेक और श्रम की अनिवार्यता. लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन इसी का प्रतीक है. गणेश यानी बड़ा कान, सुनो सबकी, सभी मान्यताओं / सिद्धांतों / तर्क - कुतर्क सुने; लेकिन लक्ष्य में सूक्ष्मता हो, केवल लक्ष्य को देखो! उसी का संधान करो!! 'लक्ष्मी जी' आलसी - अविवेकी को लभ्य नहीं है. लेकिन हम तथ्यों को न समझकर दीप मालाओं की लडियां, झिलमिलाते झालरों, बल्बों के डिजाइनदार जालों से, आकर्षक रूप में घरों को, भवनों को सजा लेना ही इसकी योग्यता मान बैठे है.

क्या कभी आपने सोचा है - कहीं वहाँ कोई कालिमा, कोई धब्बा, कोई ईर्ष्या-द्वेष तो नहीं है मन के आँगन में? यदि है तो मिटा डालिए इसी ज्ञानदीप से उस कालिमा को, धो डालिए उस धब्बे को.क्योकि मानव मन के इसी अन्धकार को, बुराइयों को विजित कर 'प्रकाश' और 'ज्ञान' फैलाने का पावन पर्व है - 'दीपावली'. यह प्रत्येक मन में उठने वाले स्नेहिल उत्साह और उमंग प्रदर्शन का भी प्रतीक है - 'दीपावली'. परन्तु अफ़सोस! बहुत ही अफ़सोस !! न जाने कब और कैसे जुआ और चौपा खेलने जैसी कुरीति और बुराई ने दीपावली से नाता जोड़ लिया. यह बद्तोब्याघात है और दीपावली का घोर अपमान भी. इस कुरीति को मिटाना ही दीपावली की श्रेष्ठ पूजा है. दीपावली तो मन का उल्लास है, जब भी मानव का मन खुश होता है, वह प्रसन्न होता है - जोर से ठहाके लगाता है, जोरदार पटाखे बजता है, घर को खुशियों से रोशन करता है. बुराई पर अच्छाई की जीत मानव की सामूहिक जीत है. रावण पर राम की विजय सभी के मन को इसीलिए भाती है. .नगर वासियों ने राम के स्वागत में नगर को सजाया, पटाखे छोड़े, मंगल गीत गाये, सत्य का, अच्छाई का समर्थन किया. अब अच्छाई की यह जीत एक रूढी बन गयी है.यहाँ बताते चलें; मानव मन बुरा नहीं है, बुरा होता तो दीपावली नहीं मनाता. परन्तु विडम्बना यह है कि दीपावली मनाने का ढंग आज भव्यता और धन-प्रदर्शन की अभिरुचि ने ले रखा है. इस भोंडा प्रदर्शन ने दीपावली की महिमा बधाने की बजाय घटाई है. अंतर के उमंग को, अंतर की ज्योति को, अंतरात्मा के घर को यदि ज्योति से जगमगा दिया जाय तो यही दीपावली सर्वश्रेष्ठ दीपावली है. बारूद के पटाखे छोड़ना, पर्यावरण को दूषित करना, बुद्धिमानी नहीं. इस विन्दु पर बुद्धिजीवी वर्ग को ही बार-बार चिंतन करने की आवश्यकता है.



आज भी हम उसी परम्परा को निभा रहे है. और सच कहा जाय तो अब इस परम्परा को ढो रहें है. कहाँ गया हमारा पवित्र उद्देश्य? कहाँ गए हमारे अंतर के छलकते - उमड़ते - घुमड़ते प्यार? परमात्मा ने, 'तदेकं' ने जब दीपावली मनायी - ब्रह्माण्ड का सृजन किया. हमने दीपावली में क्या सृजित किया? इस प्रश्न पर अवश्य ही विचार करना चाहिए. निद्रा देवी की गोद में जाने से पूर्व यदि हम-आप द्वारा अपने दैनिक कृत्य का स्व मूल्यांकन कर लिया जाय, अपने तन-मन को ही दीपक बना लिया जाय तो यही होगी सबसे बड़ी - 'दीपावली'. यही होगी इस पर्व की सबसे बड़ी उपयोगिता और उपादेयता. मैंने तो बना लिया दीपक, अपने तन को, अपने मन को. क्या आप तैयार है साथ निभाने के लिए? अरे ! यह दीपक अत्यंत महत्वपूर्ण है, यह माता-पिता के सामान पालक - पोषक - कल्याणकारी है -"स न: पितवे हूँ वेगने सूपायनो भव". इसलिए मै तो यही कहूँगा और कहता रहूंगा ----










तन दीपक मेरा मन दीपक / दीपक मेरा सपना है / जग को कहीं करे आलोकित / उससे रिश्ता अपना है / दम्भ बताना दीपक को / दीपक का अपमान है / यह आपबी नादानी और / विवेक हीनता की पहचान है / दीपक तो प्रतीक है / सामजिक एकता और प्रकृति के साथ / अद्भुत सौहार्द्र और सद्भाव का / सामंजस्य का .. / खेत की मिट्टी / तालाब का जल / रजनीश की शीत / दिनकर का प्रकाश / पवन की श्वांस / आकाश का अवकाश / बॉस का डंडा / गो-वंश का कंडा / कुम्भकार का श्रम / अग्नि की दाहकता / चित्रकार की कल्पना / फूलों का रंग / घूमते चाक का नृत्य / तेली का तेल / किसान का घृत / कपास की पौध / पौध की रूई / जिसे बनाकर बत्ती / दादी माँ ने अपनी श्रद्धा / है उसमे पिरोई / तब ई है दीपक में जान / देखो कैसे देखा रहा है शान / मिटा देगा अब अँधेरे का नामों ईशान / हमको भी दीपक बन जाना है / इसका आदर्श निभाना है / बदल सकता है दीपक का रंग -रूप / आकार - प्रकार / पर नहीं बदल सकता / दीपक का विशिष्ट व्यवहार / क्योकि वह व्यवहार ही / दीपक का प्राण है / इसके अभाव में वह निर्जीव - निष्प्राण है / ज्योतिहीन दीपक निररथक / और निष्प्राण ही नहीं / कलंक है - कुल का, समाज का, राष्ट्र का..