हे मानव!
क्या तू भी एक गिरगिट है?
जो क्षण क्षण रंग बदलता है.
गिरगिट
तो ठहरा क्षुद्र प्राणी
उसका यह कर्म भी है क्षम्य
क्योकि उसके लिए है यह
आत्म रक्षा का एक ढंग.
परन्तु तू
विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति,
तेरे अन्दर आयी कहाँ से यह विकृति?
अरे ओ निर्लज्ज!
तू इतना दुस्साहसी हो गया क़ि
सुधरने की बजाय तू चाहता है
इसकी सामजिक स्वीकृति.