कल तक -
सर्वसुलभ था मैं
अम्बर हवा पानी सा
ह्रदय अम्बर था
मन पवन था
जीवन जल था
कितना सरल था
संवेदनाएं सघन थीं
अनुभूतियों में हर्ष था
अभिव्यक्ति मृदंग था
आज -
जटिल हूँ महंगा भी
ए। सी. की हवा सा
बोतल के पानी सा
भावनाएं मर रहीं हैं
इंटरनेट एस एम एस
मोबाइलसंग बह रही है
रिश्तों में गहराई कहाँ
मन ऊषणतर हो रहा
कटुता नित बढ रही है
जीवन हुआ बेमानी सा.
और कल -
लगता है अब
दुर्लभ सा हो जाऊँगा
हवा को विषाक्त और
जल को गरल बनाऊंगा
संवेदनाओं को मिटाकर
पहचान मिटाने पर तुला हूँ
इसे अपने हाथों मिटाऊंगा
मानव से रोबोट बन जाऊँगा
और गर्व से छाती ठोककर
प्रगतशील इंसान कहलाऊंग
इंसान की परंपरागत परिभाषा
पूरी तरह बदल जाऊँगा।
जब
पीछे मुड़ता हूँ सोचता हूँ
यदि प्रगति है यही तो
ह्रास क्या है? विनाश क्या है?
यह चिंतन नहीं, चिंता है
क्या कोई इसमें हाथ बताएगा या
वह भी मेरी तरह जिन्दा जाएगा ?
डॉ जय प्रकाश तिवारी