Thursday, November 25, 2010

प्रज्ञान विज्ञानं - परिचर्चा (पुष्प - १)




प्रस्तुत है: १९३० में हुई महत्वपूर्ण दार्शनिक परिचर्चा के कुछ अंश



.आइन्स्टीन - विश्व के स्वरुप के बारे में दो भिन्न अवधारणाएं है:
(१) विश्व; मानवीयता पर आश्रित एक इकाई के रूप में, तथा 
(२) विश्व; मानक कारक से इतर एक वास्तविकता के रूप में.

टैगोर : जब ब्रह्माण्ड का परम पुरुष (यानी शाश्वत) के साथ तालमेल स्थापित हो जाता है तो उसे हम सत्य कि संज्ञा देते है तथा उसका अनुभव हम सुन्दरता के रूप में करते है.

आइन्स्टीन: यह तो विश्व के बारे में विशुद्ध मानव संकल्पना है.

टैगोर : हां, यह एक शाश्वत सत्ता की धारणा है. इसका अनुभव प्राप्त करने के लिए हमे अपनी भावनाओं तथा क्रियाशीलता से काम लेना होगा. हमने परम पुरुष की कल्पना क़ी तथा अपनी सीमाओं द्वारा ही हमने जाना कि उसमे कोई भी कमी नहीं है. विज्ञान उसका ही अध्ययन करता है जो व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं है. यह अव्यक्तिगत सत्यों का जगत है. इस सत्य को धर्म महसूस करता है और हमारी गहन आवश्कताओं के साथ उसे जोड़ता है. सत्य संबंधी हमारी वैयाक्तिक चेतना तब सार्वभौमिक सार्थकता प्राप्त करती है. धर्म सत्य पर मूल्यों का आरोपण करता है और सत्य के साथ अपना तालमेल बिठाकर हम अच्छाई के रूप में उसे जान और समझ पाते है,

आइन्स्टीन : सत्य या फिर सुन्दरता क़ी मानव से इतर क्या कोई स्वायत्ता नहीं है?

टैगोर : नहीं.

आइन्स्टीन : सुन्दरता क़ी बात करे तो इस तर्क को मै मानने के लिए तैयार हूँ. लेकिन सत्य को लेकर मेरी इससे असहमति है.


टैगोर :
 क्यों? सत्य का अनुभव व्यक्ति विशेष के माध्यम से ही तो होता है.

आइन्स्टीन: मै इसे सिद्ध नहीं कर सकता कि वैज्ञानिक सत्य को मानवीय सत्य से इतर रूप में मानी समझा जाय, लेकिन इस बारे में मेरा विश्वास एकदम दृढ है. उदहारण के लिए, मै यह मानता हूँ कि ज्यामिति में पाइथागोरस प्रमेय का कथन लगभग सत्य है और जो मानव के अस्तित्व पर आश्रित नहीं है. जो भी हो, मानवीयता से मुक्त कोई स्वयात्त वास्तविकता है भी तो इस वास्तविकता क़ी सापेक्षता में भी किसी सत्य का अस्तित्व जरूर होना चाहिए. इसी प्रकार पहले का निषेध दूसरे के निषेध का कारण बन सकता है.

टैगोर : सत्य; जो सार्वभौमिक सत्ता के साथ्पूरी तरह से एक है, का स्वरुप अनिवार्यतः मानवीय ही होना चाहिए. नहीं तो वैयक्तिक तौर पर कोई मानव जिसे सच समझता है उसे सत्य कहा भी नहीं जा सकता. कम से कम वह सत्य जिसे वैज्ञानिक सत्य कहा जाता है और जिस तर्क तक पहुचने के लिए तर्क क़ी मानवीय प्रक्रिया यानी चिंतन का सहारालेना पड़ता है....सत्य के जिस स्वरुप के बारे में हम चर्चा कर रहें हेंवा केवल एक आभास मात्र है यानी मानव मन को जो कुछ सत्य प्रतीत होता है. उसे हम माया भी कह सकते हैं. 

आइन्स्टीन : विचारणीय समस्या यह है कि क्या सत्य हमारी चेतना से परे एवं स्वायत्त है?

टैगोर : जिसे हम सत्य कहते हैं वह वास्तविकता के दोनों स्वरूपों, व्यक्तिपरक एवं वस्तुपरक, के तर्कसंगत तालमेल में निहित होता है और परम पुरुष के साथ इन दोनों ही स्वरूपों का सम्बन्ध होता है. 

आइन्स्टीन : अपने दैनिक जीवन में भी जिन वस्तुओं का हम उपयोग करते हैं उन्हें मानव अस्तित्व के परे की एक वास्तविकता प्रदान करने की हमारी विवशता होती है.ऐसा अपने इन्द्रियजन्य अनुभवों को एक तर्क रूप से जोड़ने के लिए ही हम करते हैं. उदाहरण के लिए, यदि इस घर में कोई मौजूद नहीं है तो भी यह मेज जहां है वही पर रहेगी.

टैगोर:
 व्यक्ति मन के दायरे के बाहर होने के बावजूद यह परम मन के दायरे के बाहर तो तब भी नहीं है. यह मेज जिसकी स्थिति का बोध मुझे होता है, मेरे भीतर मौजूद चेतना द्वारा ही इन्द्रियानुभूत है.

आइन्स्टीन : मानवीयता से परे हटकर सत्य के अस्यित्व के बारे में हमारी स्वाभाविक धारणा न तो व्याख्यायित है और न ही सिद्ध की जा सकती है लेकिन यह एक विश्वास है जो सबके; यहाँ तक क़ि आदि मानव के मन में भी मौजूद था. सत्य पर हम एक मानवेतर वस्तुपरकता आरोपित करते हैं, हमारे लिए वह अपरिहार्य है, वह वास्तविकता जो हमारे अस्तित्व, अनुभव एवं मन पर आश्रित नहीं है- हालांकि इसका असल अभिप्राय क्या है, इस बारे में हम कुछ नहीं कह सकते.

टैगोर : सत्य की समझ के पीछे सार्वभौमिक मन तथा व्यक्ति (मानव) मन के बीच एक शाश्वत विरोध विद्यमान रहता है.इस विरोध को पाटने की प्रक्रिया विज्ञान, दर्शन तथा आदर्शों के जरिये चिरंतन रूप से चलती रहती है. किसी भी हालत में, यदि कोई सत्य मानवीयता से निरपेक्ष है तो हमरे लिए वह पूर्ण रूप से अस्तित्वहीन है. जब तक हम मनुष्य हैं तब तक ऐसा कोई सत्य जिसका मानव मन से कोई तर्कसंगत संबंध न हो, सदैव अस्तित्वहीन ही रहेगा.

आइन्स्टीन : तब तो मै आपसे अधिक धार्मिक हुआ. 
(Then I am more religious than you are !)

टैगोर :मेरे व्यक्तिगत अस्तित्व में उस परम पुरुष की सर्वव्यापी आत्मा के अंतर्वेष में ही मेरा धर्म निहित है ...मानव मनों के व्यक्तिगत सीमाओं को धीरे-धीरे छांटते हुए उस परम पुरुष के मन में छिपे सत्य को ही अंततः समझने की कोशिश विज्ञान में की जाती है.



स्रोत
 : Quantum Mystery - Rajat Chanda (National Book Trust, India)
अनुवाद : श्री प्रदीप कुमार मुखर्जी 

Pragyan Vigyan Paricharcha: टैगोर -आइन्स्टीन परिचर्चा

Pragyan Vigyan Paricharcha: टैगोर -आइन्स्टीन परिचर्चा

टैगोर - आइन्स्टीन परिचर्चा (2)

T: Rabindranath Tagore; E: Albert Einstein
(Year: 1930)

pp 105-107


<-- Rabindranath Tagore and Albert Einstein in Caputh, July 14, 1930

The second Einstein-Tagore dialogue, the one held in Caputh, 'was taken down by a friend who was present'. This time they began with a discussion of the nature of causality. On this subject the two men talked past each other without any understanding as to what the other was driving at. I do not consider it worthwhile reproducing here any of this. On the other hand, their next theme, on music is quite appealing.

Tagore: The musical system in India...is not so rigidly fixed as is the western music. Our composers give a certain definite outline, a system of melody and rhythmic arrangement, and within a certain limit the player can improvise upon it. He must be one with the law of that particular melody, and then he can give spontaneous expression to his musical feeling with the prescribed regulation. We praise the composer for his genius in creating a foundation along with a superstructure of melodies, but we expect from the player his own skill in the creation of variations of melodic flourish and ornamentation. In creation we follow the central law of existence, but, if we do not cut ourselves adrift from it, we can have sufficient freedom within the limits of our personality for the fullest self-expression.


Einstein
: That is only possible where there is a strong artistic tradition in music to guide the people's mind. In Europe, music has come too far away from popular art and popular feeling and has become something like a secret art with conventions and traditions of its own.


Tagore: So you have to be absolutely obedient to this too complicated music. In India the measure of a singer's freedom is in his own creative personality. He can sing the composer's song as his own, if he has the power creatively to assert himself in his interpretation of the general law of melody which he is given to interpret.

Einstein : It requires a very high standard of art fully to realize the great idea in the original music, so that one can make variations upon it. In our country the variations are often prescribed.

Tagore: If in our conduct we can follow the law of goodness, we can have real liberty of self-expression. The principle of conduct is there, but the character which makes it true and individual is our own creation. In our music there is a duality of freedom and prescribed order.

Einstein : Are the words of a song also free? I mean to say, is the singer at liberty to add his own words to the song which he is singing?

Tagore: In Bengal we have a kind of song - Kirtan, we call it - which gives freedom to the singer to introduce parenthetical comments, phrases not in the original song. This occasions great enthusiasm, since the audience is constantly thrilled by some beautiful, spontaneous sentiment freshly added by the singer.

Einstein : Is the metrical form quite severe?

Tagore: Yes, quite. You cannot exceed the limits of versification; the singer in all his variations must keep the rhythm and the time, which is fixed. In European music you have a comparative liberty about time, but not about melody. But in India we have freedom of melody with no freedom of time.

Einstein: Can the Indian music be sung without words? Can one understand a song without words?

Tagore: Yes, we have songs with unmeaning words, sounds which just help to act as carriers of the notes. In North India music is an independent art, not the interpretation of words and thoughts, as in Bengal. The music is very intricate and subtle and is a complete world of melody by itself.


Cartoon by Herblock, published in Washington Post some days after Einstein's death -->

Einstein : It is not polyphonic?

Tagore: Instruments are used, not for harmony, but for keeping time and for adding to the volume and depth. Has melody suffered in your music by the imposition of harmony?

Einstein : Sometimes it does suffer very much. Sometimes the harmony swallows up the melody altogether.

Tagore: Melody and harmony are like lines and colors in pictures. A simple linear picture may be completely beautiful; the introduction of color may make it vague and insignificant. Yet color may, by combination with lines, create great pictures, so long as it does not smother and destroy their value.

Einstein : It is a beautiful comparison; line is also much older than color. It seems that your melody is much richer in structure than ours. Japanese music seems to be so.

Tagore: It is difficult to analyze the effect of eastern and western music on our minds. I am deeply moved by the western music - I feel that it is great, that it is vast in its structure and grand in its composition. Our own music touches me more deeply by its fundamental lyrical appeal. European music is epic in character; it has a broad background and is Gothic in its structure.

Einstein : Yes, yes, that is very true. When did you first hear European music?

Tagore: At seventeen, when I first came to Europe. I came to know it intimately, but even before that time I had heard European music in our own household. I had heard the music of Chopin and others at an early age.



Einstein : There is a question we Europeans cannot properly answer, we are so used to our own music. We want to know whether our own music is a conventional or a fundamental human feeling, whether to feel consonance and dissonance is natural or a convention which we accept.
Tagore: Somehow the piano confounds me. The violin pleases me much more.

Einstein : It would be interesting to study the effects of European music on an Indian who had never heard it when he was young.


Tagore
Once I asked an English musician to analyze for me some classical music and explain to me what are the elements that make for the beauty of a piece.

Einstein : The difficulty is that really good music, whether of the East or of the West, cannot be analyzed.

Tagore: Yes, and what deeply affects the hearer is beyond himself.

Einstein : The same uncertainty will always be there about everything fundamental in our experience, in our reaction to art, whether in Europe or Asia. Even the red flower I see before me on your table may not be the same to you and me.

Tagore: And yet there is always going on the process of reconciliation between them, the individual taste conforming to the universal standard.