कुछ वर्ष पहले किसी
कवि के इन शब्दों को -
"मुश्किल हो गया है अब
आदमी को परिभाषित करना
कविता के बाहर .....".
सोचता हूँ आज
ऐसा क्यों कहा
उस महानुभाव ने?
क्या एक संरचना, रूप-रंग
आकार -प्रकार के रूप में
कभी आदमी हो सकता है -
मुश्किल, अपरिभाषित..
और........अव्याख्येय?
निश्चय ही यहाँ आशय
आदमी का अर्थ रंग-रूप
से नहीं रहा होगा.
निश्चय ही यह आदमी के
अंतर में छिपी चिति
मन - चेतना - संवेदना
की ओर एक संकेतन है,
आगे बढ़ने का निवेदन है.
तन का चित्रण तो हो सकता है
किन्तु मन का चित्रण?
मन के चित्रण के लिए ही तो
रचे गए हैं - अलग शस्त्र,
एक स्वतंत्र 'मनोविज्ञान'.
जिसमे फ्रायड से लायड तक,
और सुकरात से देकार्त, ब्रैडले से
कांट और सार्त्र तक विचारको ने
लिखा तो खूब लिखा और
कहा तो क्या खूब बेबाक कहा.
ज्यां पाल सार्त्र ने जरूर दी है
एक चर्चित परिभाषा आदमी की -
"आदमी वह है जो वह नहीं है और
जो वह नहीं है वही वह है"
लेकिन बात बनी कहाँ?
अंततः सभी बड़े विचारक उतर आये हैं
काव्य की रहस्यमय भाषा में.
आंचलिक प्रतीकों और लोक कथाओं में.
.इसलिए गाया है मानव मन के गीत को
काव्य में, लक्षणा में, व्यंजन में, आदि कवि
वाल्मीकि से लेकर अद्यतन चिंतकों और
कवियों ने. लेकिन कहाँ पूरी हो पाई है,
मानव की परिभाषा आज भी?
मानव जो है - देव से भी सुंदर,
मानव जो है - दानव से बनी बदतर.