Wednesday, February 27, 2013

अशक्त नारी, सशक्त नारी

 
(भाग-१)
नर  से जो द्विगुणित है नारी,
वह नारी क्यों आज है हारी?
शक्तिस्रोत है नाभि में जिसके,
आखिर उसकी क्या लाचारी?

सृजन - पालन जो करती है
वह ध्वंश नाम से क्यों घबराती?
जिस पथ सब सरल चाल चलते,
उस पथपर भी वह बल खा जाती

जो स्नेह लुटाती लाल पर अपने
वह वधू का काल क्यों बन जाती?
कुछ वधुएँ भी होती हैं ऐसी जो
सासू माँ को क्या खूब छकाती .

खाने को वह गम खाती है
और पी जाती सब खारा पानी,
फिर भी जाए छलक कभी तो
स्वयं को वह कठघरे में पाती

सिसक सिसक कर जीवन जीती
और जीवन, चैका - बेलन - रोटी
लांघा जब चौखट उसने आज
उठा लिया है जब बेलन हाथ

यह समाज उसपर चिल्लाता
हो पति या बेटा हाथ उठाता
उस हाथ को नारी रोक न पाती
अब भी जाने क्या है लाचारी?

निकली जब घर से बाहर आज
उसे मिला दुशासन का समाज
दुशासन के लम्बे -लम्बे हाथ
दुर्योधन का उसपर वरद हाथ?

एक दुशासन के कारण ...
कभी हुआ यहाँ था भीषण रण
तब राजतंत्र था, अब लोकतंत्र
कैसी प्रगति, जब वही आचरण?

गृह अन्दर नारी का शासन है
पर घर-घर एक दुशासन है
दुशासन तो घर में ही पलता
माँ आखिर उसको समझ न पाती

कहती  जिसको लाल ! लाल!!
वही करता  नारी को  हलाल,
यह नारी के लाल की करनी है
नारी का शव, ये टुकडे लाल.

(भाग-२)

छोडो नारी तुम ममता को
छोडो मान और प्रभुता को
तेरी असली शक्ति तो समता है
क्यों छोड़ दिया इस समता को?

समता से नाता जोड़ोगी
यह प्र्स्भुता दौड़ी आएगी
हर दृष्टि थर्राएगी तुमसे
नहीं ध्वंश की बारी आएगी

दुशासन नजर न आएगा
घर बैठे शोक मनायेगा
घुट घुट कर वह मर जाएगा
दुर्योधन भी तब घबराएगा .

अब लाल जिसे भी बोलोगी
मुह में मिसरी जब घोलोगी
यह जग होगा तेरा ही लाल
तू है एक माँ, तू रहेगी माँ .

हो प्रकृति स्वरूपा, बनो प्रकृति
सृजन-पालन में रहो प्रवृत्त,
जननी बन जा, तू जगजननी
जय हे जननी, जय जगजननी !


- डॉ जय प्रकाश तिवारी