Saturday, February 4, 2012

तड़प यह छोड़ दूँ कैसे?


तड़पना  छोड़  दूंगा  मै,
मुझे प्रस्तर बना दो तुम!
ये  वादे  तोड़  दूंगा  मै,
मुझे जड़वत बना दो तुम!

तड़प ये छोड़ दूँ कैसे ?
जब तक चेतना जागृत,
मुहब्बत छोड़ दूंगा मैं,
मुझे अचेतन बना दो तुम!

मालूम न था तब यार!
याराना होता है ऐसा,
चाहे जड़ भी बना दोगे,
मुहब्बत कम नहीं होगी.

प्यार होता है- 'सचेतन',
इसे अब मैंने जाना है.
जिसे हम जड़ समझते थे,
उसमे स्पंदन भी होता है.

कहते प्यार जिसको हैं,
यह है उपहार, सृष्टि का.
यह मिलता नहीं सबको,
यह है, उपकार दृष्टि का.

शिला पर पोत के काजल,
दिल के बोल लिख दूँगा.
मगर पढ़ पाओगे तुम ही,
ऐसी लिपि में लिख दूंगा.

ये जानो दूर होकर भी,
नहीं तुम दूर हो सकते.
न अपने आप में इतने,
अधिक मगरूर हो सकते.

एक दिन वह भी आयेगा,
जब नंगे पाँव आओगे.
हो विकल शिलापट्ट पर,
सिर को तुम झुकाओगे.

लेकिन कहाँ उस क्षण,
शिला मै रह ही पाऊँगा,
शिला जो धार फूटेगी,
उसी से लौट आऊँगा.

धार गंगा की लाऊंगा
तुझे यमुना बना कर के,
संगम मै यहीं बनाऊंगा.
अब संगम यहीं बनाऊंगा.

संगम हुआ पत्थर प्रदेश में,
स्रोत पीयूष बहे समतल में.
कर पार अवरोध  जीवन के.
हम लेंगे मुक्ति सागर तल में.

बूँद मिलेगा जब यह सागर में,
तब सागर ही यह कहलायेगा.
होगा फिर, एक दिन कुछ ऐसा,
बूँद में, सागर विलीन हो जायेगा.

तड़प यह मुक्ति का है द्वार,
तड़प यह छोड़ दूं कैसे?
जब तक चेतना जागृत,
तड़प यह छोड़ दूं कैसे?

जिसने शक्ति दी मुझको.
और अनुरक्ति दी मुझको.
जिसने भक्ति दी मुझको.
देगी मुक्ति जो मुझको,

तड़प वह छोड़ दूं कैसे?
तड़प यह छोड़ दूं कैसे?