Saturday, September 6, 2014

संवेदनशून्यता


जब पौधा था तुम पत्ते नोचता रहे
जब बड़ा हुआ तो डाली तोड़ते रहे
कलियों को भी कहाँ छोड़ा तुमने...
फूलों पर तो एकाधिकार ही था
कोई देख भी लेता तो घूरते रहते
उसकी छाया में बैठकें करते रहे
प्रगतिशील योजनायें बनाते रहे
सुविधाओं का उपभोग करते रहे
उसी के बदन में कील ठोकते रहे
उसकी आंसुओं को लासा कहते रहे
उस 'लासा' का व्यापर करते रहे
वह बार बार रोता रहा हँसता रहा
तुम्हारी सारी हरकतों को सहता रहा
तेरी करतूतों ने उसे असमय बुढा कर दिया
तुमने उस बूढ़े को ठूंठ भी नहीं होने दिया


अरे उसके मौत की प्रतीक्षा तो कर लेते
शर्म नहीं आई तुम्हे आरी चलवा दिया
लेकिन तुझे शर्म आती भी कैसे
उसे तो जाने कब का घोलके पी चुके हो
तुम वही हो न ? सफ़ेद कोठी वाले ?
जिसने माँ-बाप को आश्रम भिजवा दिया है
अरे ओ संवेदनशून्य ! स्वार्थ के आराधक
तुम्हे किसी पेड़ से संवेदना कैसे होगी
जब अपने माँ - बाप से ही संवेदना नहीं
कहा जाता है कि खून असर दिखाता है
लेकिन तूने तो विज्ञान को भी फेल कर दिया
तेरे ऊपर न पेड़ के खून ने असर दिखाया
न बेचारे माँ - बाप के पवित्र खून ने ही ..

डॉ जयप्रकाश तिवारी