कहाँ गए आज के नारी आन्दोलन के
तथाकथित राजनेता - राजनेत्री, सशक्तिकरण के
ध्वजवाहक नायक और नायिकाएं?
क्या टीवी के विभिन्न चैनलों पर दिखने वाली
'नग्न नारी देह' ही अंतर्राष्ट्रीय प्रगति और
नारी सशक्तिकरण है?
ये सही अर्थों में सम्पूर्ण नारी विकास' को
तो समझ पाए नहीं, ये दिशा क्या देंगे?
हाँ अपना उल्लू सीधा करके अपना
नाम कमाने वाले, अकूत संपत्ति बटोरने वाले,
ये नारी सशक्तिकरण के अग्रदूत;
इसकी शुरुआत निज गृह,
निज परिवार से क्यों नहीं करते?
आखिर सशक्तिकरण के नाम पर
कब तक महिलाओं को
सेल्स ब्रांड बनाया जायेगा?
और उत्पाद बेंचने के लिए
ग्राहकों को फसाया जायेगा?
ये नव व्यापारवाद, पुरुष और
महिला दोनों को बुद्धू बना रहा,
'नारी देह' को नंगा नाचा रहा.
ठंडा - गरम, पिला -पिला,
साबुन,-,शम्पू से नहला रहा,
लोभी पुरुष मानसिकता को लुभा रहा.
इनका इमान - धरम
न नारी सशक्तिकरण है, न
पुरुष वशीकरण,इनका मूल उद्देश्य है-
धन और बाजार की पूंजी पर अधिपत्य.
नारी अधिकारों की वकालत
करने वालों का रूप आज दोनों सदनों में
देखिये, कहाँ गया महिला आरक्षण बिल?
क्यों नहीं पारित हो पाया अबतक?
पारित होने की संभावना भी नहीं,
खोट है नीयत में.क्योंकि अब
स्वयं की कुर्सी खतरे में नजर आ रही.
जो पांच साल के लिए कुर्सी मोह
नहीं छोड़ सकता वह,
नारी सशक्तिकरण के नाम पर
छल / शोषण ही तो कर रहा?
हाँ इतना अवश्य हुआ कि
नारी मन में चौखट लांघने का
एक कौतुहल, उत्साह और उमंग आया है, जो
शिक्षा के माध्यम से, कार्यालय से आकाश तक,
खेल के मैदान से राजनीतिक द्वार तक छाया है.
अब नारी मन कि इसी उमंग, इसी तरंग,
इसी समझ ने इन नेताओं कि नीद को उड़ाया है.
इनमे भय आ समाया है, नारी है क्या?
क्या अब तक इनकी समझ में आया है?
इन्हें क्या पता; नारी मन, शोषण और व्यापार की नहीं;
श्रद्धा, मर्यादा, शक्ति और भक्ति रहस्यमयी पुंज है.
इन नेताओं में नारी के इन्हीं गुणों से तो भय है.
वे अब नारी को बहलाकर- फुसलाकर, समाज में
नारी का ऐसा कुत्सित कुरुपौर अमर्यादित रूप
प्रस्तुत करना चाहते हैं, जिससे नारी स्वयं अशक्त हो जाय.
स्वयं की नज़रों में गिर जाय. अक्षम को नाचाना सरल है,
सबल के समक्ष तो स्वयं ही नाचना पड़ेगा.
नारी सशक्तिकरण इनका केवल नारा है, छल है.
नारी स्वाधीनता की परिकल्पना
कोई पश्चिम की बपौती नहीं.
अनादि काल से बही है यहाँ -
नारी स्वाधीनता की एक धारा.
जो प्रतीक - प्रतिमानों में गुम्फित है
यह, उधार की कठौती नहीं.
सती का हठ, उनका यज्ञाग्नि प्रवेश,
नारी स्वातंत्र्य और
अधिकार का प्रथम उदाहरण है.
अनुसुइया का सामाजिक विद्रोह,
सतीत्व बल, सावित्री का सतवान वरन,
सीता का बन गमन,
मीरा, राधा का अनुराग.
स्वाधीनता का ही है परिचायक.
परन्तु इसमें कहीं भी दांपत्य से दूरी नहीं.
दुराव टकराव तलाक नहीं,
मनुष्यता, मानवता, सामाजिकता का ह्रास नहीं.
मानव समाज मानव सृष्टि को कोई
खतरा नहीं, सृष्टि संरचना को
पुष्ट ही करता है यह अधिकार.
आज उसी अधिकार हेतु आन्दोलन क्यों?
चाहिए यदि वास्तविक अधिकार,
आंशिक नहीं सर्वांश तो वापस लौटना होगा.
पाश्चात्य शैली नहीं, अपनी संस्कृति को
पनाना होगा, उलटना होगा इस धारा को.
और धारा के उलट ते ही होगा चमत्कार,
न कोई शोर - शराबा, न चीत्कार.
धारा अब बन जाएगी - "राधा" .
और "राधा" में रूपांतरण होते ही :
कान्हा हो गया वश में, अब गोकुल तुम्हारी,
मथुरा तुम्हारी, द्वारिका तुम्हारी......
अब सब कुछ तुम्हारा, कान्हा तो है प्रेम से हारा.
सर्वस्व छोड़ अब ;कुछ' के पीछे,भागना क्या?
मणि को छोड़ अब तुच्छ के पीछे नाचना क्या?
इस छलावे में भी अच्छी बात यह है कि,
महिला राष्ट्रपति और महिला स्पीकर,
दोनों भारतीय संस्कृति की संवाहिका है,
देखना यह होगा की उनकी चल कितनी रही?
वे प्रमाण हैं या मुखौटा?
नारी मर्यादा संरक्षण में कितना
सफल हो पातीं हैं, यह भविष्य की बात है,
लेकिन मूल रूप में इस प्रश्न पर
नारी जगत को ही सोचना होगा.
हित उनका किसमे है? कहाँ है?
उन्हें चाहिए क्या? मिल क्या रहा?
और नारी मुक्ति आन्दोलन धारा,
सशक्तिकरण के नाम पर किधर जा रहा?
Tuesday, March 9, 2010
अंतर्राष्ट्रीय महिलादिवस : कुछ प्रश्न, कुछ आशंकाएं
एक गुनगुनाता शर्मिला सा सुकोमल नारी मन
यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए ;
स्तुत्य है, इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास .
सम्प्रेषण और प्रेक्षण की यह कोपविद्या, नारी के लिए है,
सुगम और सरल; साथ ही लाता है मनुहार का एक अवसर.
प्रत्यक्षतः यह दृश्य भी है और श्रव्य भी.
सहयोगी रूप में, दया, ममता, करुना के भाव;
इस सम्प्रेषण को बनाते है, - और भी सबल, प्रबल.
परन्तु एक चुप हो चुके पुरुष मन को,
मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का
नारी प्रयास अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों?
सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुष
की संज्ञा देना; आखिर है क्या? क्रूरता या कायरता?
कौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की
बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में;
वल्लियों उठ रहे कलोल और कोलाहल को?
शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार - भाटा को?
क्या यह अवमूल्यन नहीं,चेतना का, बौद्धिकता का?
चिंतन की वेदना का? संवेदना की स्वतन्त्रता का?
नारीमुक्ति विमर्श की धारा, उसके सशक्तिकरण की विचारधारा
समय और प्रस्थितिनुसार संवेग और स्वरुप धारण करे,
यह तो समझ में आता है, किंचित भी मतभेद नहीं उससे;
यथोचित उत्साह भरा समर्थन है उसे, वे तो दूसरे हैं
जो इसका राजनितिक विरोघ अपनी क्षुद्र लिप्सा के लिए
करते रहें है, आज भी कर रहे हैं, छोडिये उनकी बात...
प्रश्न यह है कि स्वतन्त्रता के नाम पर अपने तन-बदन को,
बाजारू चीज बना देना, आखिर है क्या? स्वतन्त्रता या स्वच्छंदता?
साथ ही नारी स्वातंत्र्य के नाम पर, नारीत्व और स्त्रीत्व से
मुक्ति कि बात, कहीं से भी नहीं आती समझ में,
यह मानवजाति का विलोपन है या पशुता का उन्नयन?
नारी को प्रकृति प्रदत्त अधिकार, सृजन है; विनाश नहीं.
मानवजाति का विनाश तो नारीजगत का अपमान है.
प्रकृति और प्रवृति से विद्रोह है, यदि नारी प्रकृति प्रदत्त
और संसकृति प्रदत्त अधिकारों कि सुरक्षा नहीं कर पायी,
तो संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा क्या रक्षा कर पाएगी?
नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न, आज सर्वाधिक
विचारणीय प्रश्न है, इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा.
आचार विचार में यह परिवर्तन,
सैद्धांतिक शब्द विन्यास के कारण है
अथवा अर्थदुर्बोध के कारण? बिना इस मर्म भेदन के,
स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या?
अथवा आज आवश्यकता उन मूलभूत सिद्धांतो के
पुनर्विश्लेषण - पुनर्व्याख्या की है. भ्रम और विभ्रम की,
यह दुरावस्था सशक्तिकरण और नारी मुक्ति आन्दोलन के
नाम पर, कहीं बन न जाये सामजिक कलह का कारण?
टूटते दांपत्य और बढ़ते तलाक पर, क्या आन्दोलन ध्यान देगा?
न जाने क्यों मन सशंकित है, कहीं बन न जाये भावी पीढ़ी ...
बलि का बकरा? अथवा खड़ा न हो जाये , प्रतिक्रियावाद का खतरा?
क्योकि जिस अस्तित्ववादी विचारधारा के पीछे यह आन्दोलन भाग रहा,
वह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे विवाह संस्कार को नकार रहा.
नहीं होंगे विवाह भावी पीढ़ी कहाँ से आएगी?
बिन विवाह सामाजिक रिश्ते क्या टिक पायेंगे?
और बिन रिश्ते हम कहाँ जायेंगे?
हम या तो मानव से च्युत होकर पशु कहलायेंगे,
अथवा इस धरा को मानव विहीन बनायेंगे.
इस प्रश्न का जवाब नहीं है इस विचारधारा के पुरोधा
सिमोन, सार्त्र, हैडगर और किर्केगर्द के भी पास,
इस समस्या समाधान हेतु कौन सा उपचार श्रेयष्कर होगा?
श्रीमान! क्या आप भी कुछ सुझायेंगे? और यदि आज चुप रहे,
तो निश्चित जानिये, इस समस्या को और जटिल ही बनायेंगे..
यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए ;
स्तुत्य है, इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास .
सम्प्रेषण और प्रेक्षण की यह कोपविद्या, नारी के लिए है,
सुगम और सरल; साथ ही लाता है मनुहार का एक अवसर.
प्रत्यक्षतः यह दृश्य भी है और श्रव्य भी.
सहयोगी रूप में, दया, ममता, करुना के भाव;
इस सम्प्रेषण को बनाते है, - और भी सबल, प्रबल.
परन्तु एक चुप हो चुके पुरुष मन को,
मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का
नारी प्रयास अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों?
सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुष
की संज्ञा देना; आखिर है क्या? क्रूरता या कायरता?
कौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की
बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में;
वल्लियों उठ रहे कलोल और कोलाहल को?
शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार - भाटा को?
क्या यह अवमूल्यन नहीं,चेतना का, बौद्धिकता का?
चिंतन की वेदना का? संवेदना की स्वतन्त्रता का?
नारीमुक्ति विमर्श की धारा, उसके सशक्तिकरण की विचारधारा
समय और प्रस्थितिनुसार संवेग और स्वरुप धारण करे,
यह तो समझ में आता है, किंचित भी मतभेद नहीं उससे;
यथोचित उत्साह भरा समर्थन है उसे, वे तो दूसरे हैं
जो इसका राजनितिक विरोघ अपनी क्षुद्र लिप्सा के लिए
करते रहें है, आज भी कर रहे हैं, छोडिये उनकी बात...
प्रश्न यह है कि स्वतन्त्रता के नाम पर अपने तन-बदन को,
बाजारू चीज बना देना, आखिर है क्या? स्वतन्त्रता या स्वच्छंदता?
साथ ही नारी स्वातंत्र्य के नाम पर, नारीत्व और स्त्रीत्व से
मुक्ति कि बात, कहीं से भी नहीं आती समझ में,
यह मानवजाति का विलोपन है या पशुता का उन्नयन?
नारी को प्रकृति प्रदत्त अधिकार, सृजन है; विनाश नहीं.
मानवजाति का विनाश तो नारीजगत का अपमान है.
प्रकृति और प्रवृति से विद्रोह है, यदि नारी प्रकृति प्रदत्त
और संसकृति प्रदत्त अधिकारों कि सुरक्षा नहीं कर पायी,
तो संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा क्या रक्षा कर पाएगी?
नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न, आज सर्वाधिक
विचारणीय प्रश्न है, इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा.
आचार विचार में यह परिवर्तन,
सैद्धांतिक शब्द विन्यास के कारण है
अथवा अर्थदुर्बोध के कारण? बिना इस मर्म भेदन के,
स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या?
अथवा आज आवश्यकता उन मूलभूत सिद्धांतो के
पुनर्विश्लेषण - पुनर्व्याख्या की है. भ्रम और विभ्रम की,
यह दुरावस्था सशक्तिकरण और नारी मुक्ति आन्दोलन के
नाम पर, कहीं बन न जाये सामजिक कलह का कारण?
टूटते दांपत्य और बढ़ते तलाक पर, क्या आन्दोलन ध्यान देगा?
न जाने क्यों मन सशंकित है, कहीं बन न जाये भावी पीढ़ी ...
बलि का बकरा? अथवा खड़ा न हो जाये , प्रतिक्रियावाद का खतरा?
क्योकि जिस अस्तित्ववादी विचारधारा के पीछे यह आन्दोलन भाग रहा,
वह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे विवाह संस्कार को नकार रहा.
नहीं होंगे विवाह भावी पीढ़ी कहाँ से आएगी?
बिन विवाह सामाजिक रिश्ते क्या टिक पायेंगे?
और बिन रिश्ते हम कहाँ जायेंगे?
हम या तो मानव से च्युत होकर पशु कहलायेंगे,
अथवा इस धरा को मानव विहीन बनायेंगे.
इस प्रश्न का जवाब नहीं है इस विचारधारा के पुरोधा
सिमोन, सार्त्र, हैडगर और किर्केगर्द के भी पास,
इस समस्या समाधान हेतु कौन सा उपचार श्रेयष्कर होगा?
श्रीमान! क्या आप भी कुछ सुझायेंगे? और यदि आज चुप रहे,
तो निश्चित जानिये, इस समस्या को और जटिल ही बनायेंगे..
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