Wednesday, September 1, 2010

सुनो कहानी कलश की



यह सुंदर कलश
जो है प्रतीक उत्कृष्ट कला का
लक्ष्मी का, धन का, वैभव का,
सम्पूर्णता का, औदार्य का,
सहनशीलता का, श्रृष्टि का
ब्रह्माण्ड का. और है एक परिच -
इस कला के सृजनहार का भी.

इस कुम्भ के निर्माण में
अंतर्भूत है - एक अजब कहानी.
यह कुम्भ खेत का मिट्टी था
जिसके उपर फावड़ा चला था
जिसे विस्थापित होना पड़ा था
निज गृह से... खेत से.....

जिसे जल डाल सड़ाया गाया
जिसे पैरों तले रौंदा गाया
जिसे थापी और लबादे सेपीटा गया
जिसे चाक पर नचाया गया
जिसे तपती धूप में सुखाया गया
जिसे जलती आग में पकाया गया.
धुंआ भी न निकलने पाए बाहर
ऐसा कुछ व्यवस्था बनाया गया.

लेकिन वाह रे कलश! वाह!!
गजब का जीवट है तेरा
तुम्हारी सहनशीलता को
बार -बार सलाम है मेरा.

जब बाहर आया कुंदन सा
चमकता - दमकता आया.
फिर तो यह दुनिया की रीति है
चमकते को पुनः चमकाना
और गले लगाना....
टूटे फूटे को घर से दूर भगाना.

अब की गयी तेरी रंगाई - पुताई
गढ़े गए कल्पनाओं के कसीदे.
और तू बन गया एक नमूना
अनुपम सौन्दर्य का.एक प्रतीक
वैभव का, ठाट - बाट का.

मिट्टी का यह कलश
आज पड़ गया है भारी
सोने-चांदी, हीरे-मोती पर भी.
देखने वाले देखते हैं -
तेरा वर्तमान, तेरा वैभव..
तेरी चमक - दमक...

सब चाहतें हैं तुझे पाना
अपने घरों में सजाना
कुछ धन से खरीदना चाहते हैं
कुछ मन से खरीदना चाहते हैं

कुछ छिन लेना चाहते हैं तुझे
गढ़ने वाले उस कुम्भकार से.
कुछ चुरा लेना चाहते हैं तुझे
बस एक मौक़ा मिले चाहे जहाँ से
घर से, दुकान से....,
मंदिर से, मस्जिद से.....

सब चाहते हैं तुझे पाना,
हथियाना. परन्तु,
कितने हैं ऐसे जो चाहते हैं -
तुझ जैसा बन जाना?

तुझ जैसा रौंदा जाना.....,
समय के थपेड़े खाना...
धूप में सुखाया जाना,
आग में जलाया जाना.
सब की तमन्ना है
मुफ्त में छ जाना....