Monday, October 3, 2011

देखा मैंने परम सत्य को

हाँ भाई!
घटना यह सच है.
गया तो था लेकर मैं मंदिर
मिथ्या ज्ञान का तीर कमान,
तर्क वितर्क निरा अभिमान.
लेकिन जाने कहाँ खो गया?
मेरे मन का प्रिय नचिकेता,
कुशल तार्किक प्रवीण प्रचेता.
जाने कहाँ खो गए वे सब.
अरे वही जिनपर,
था मुझे बहुत गुमान,
गार्गी -मैत्रेयी -भारती,
सावित्री और सत्यवान.

जाने चेतना कहाँ से आयी
उसने चावी एक थमाई,
फिर लगे खुलने बंद कपाट.
मैं छूटा, मेरा भी छूटा,
छूट गया सब अपनापन भी
खो गए स्नेह, सत्कार,
घृणा, प्यार के भाव सभी.
पूजा के दीपक,धूप,आरती भी.

दूजे पर तो नाम भूल गया,
शेष रही मात्र 'हूँ' की स्मृति.
तीजे पर तो वह भी गयी
खो गयी सारी विकृति.
चौथे पर लिंग भेद खो गया,
अहं - इदं का भेद भी गया.

जो अब है, केवल 'वही' है,
जो प्रतिरूप उसी का है सब.
पाचवे पर यह है भी गया.
रहा बचा अब केवल वही,
परन्तु वह कौन?
लिंग भेद से परे -
जोतित एक ज्योति.
जहां अहं -त्वं का है लोप.
केवलं -केवलं, इदं केवलं.

क्या कहे उसे?
पुरुष? अरे नहीं,
स्त्री? अरे नहीं.
जो त्वां स्त्री,
जो त्वं पूमान.
न स्त्री, न पूमान.
अर्द्ध नारीश्वरम
केवलं सत्यम.
शक्ति केवलं
शुभं केवलं.

मिटा छठे पर -
शिव-शक्ति युग्म भी,
अलिंगी वह
अर्द्ध नारीश्वरम भी.
अब बचा है केवलं शून्यं.
सातवें पर -
वह शून्य भी धुंधला,
अब केवलं केवलं
महाशून्यं - महाशून्यं.

साकार से निराकार तक घूमा,
हूँ द्रष्टा अब परम सत्य का.
यहाँ वहाँ सब ज्योति हमारी,
हमहीं पुरुष हमीं हैं नारी.
मूल रहस्य को जाना मैंने,
अनंत सृष्टि से -
महाशून्य तक जाना मैंने.
अस्ति भाव से-
नास्ति भाव तक जाना मैंने.

लौटा कैसे?
मैं नहीं जानता.
लौटी तंद्रा जब
मंदिर में था.
था माँ के दरबार में.
सामने दीपक जल रहा था,
मैं तो -
दुर्गा सप्तसती पढ़ रहा था.