Monday, March 1, 2010

होली का अर्थ और निहितार्थ

होली का अर्थ और निहितार्थ है - हो ..ली . अर्थात अच्छा बुरा अब तक जो भी हुआ वह हो चुका.. वह बीत गया. और जो बीत गयी वह बात गयी. नफरत की होली को जलाओ, स्नेह और अनुराग के विविध रंगों के गुलाल लगाओ. यही होली है. यही सूत्र है, परन्तु यह सूत्र देखने में जितना छोटा और सरल लगता है वास्तव में उतना सरल है नहीं. व्यावहारिक जीवन में यह बहुत ही कठिन है, टेढा है; लेकिन पुरुषार्थ भी तो यही है. सरल कार्य तो सभी करते हैं, कभी उपयोगी कार्य भी तो करना चाहिए. और क्या इस अर्थ को भी और व्याख्या की अवश्यकता है? यदि उपयोग, उपादेयता, महत्व और मानवीय मूल्य की दृष्टि से देखा जाय तो यही इस पर्व की सार्थकता है. आइये कोशिश तो करें, मै भी अभी यह प्रयास कर ही रहा हूँ....दो-चार पग साथ-साथ तो चलें .....धीरे-धीरे आदत बन जायेगी . होली इसी बहाने बहुत यादगार बनजाएगी. शुभ होली, सार्थक होली और भावनात्मक होली की ढेर सारी शुभ कामनाये.........

क्या है काव्य

क्या है काव्य ?
काव्य आत्मोदगार है; ह्रदय की रसधार है,
आवेग के संवेग में भी; बहते यहाँ विचार हैं.
ह्रदय तो परमात्मा का अगार है; शब्द ब्रह्म है- यह !

कविता जनार्दन का सन्देश;
जनता जनार्दन तक पहुचती है,
कविता विधि सापेक्ष; विधि निरपेक्ष होती है,
कुछ उसी तरह, जैसे विधि ही है - सापेक्ष,
निरपेक्ष, और सापेक्ष - निरपेक्ष.

काव्य कभी विधि सम्मत होता है,
कभी विरोधक होता है, यह निरपेक्ष
- शाश्वत - शांत - प्रशांत होता है,
रागी-विरागी, दैहिक-दैविक-भौतिक होता है.

काव्य, साहित्य प्रायः आन्दोलन करते नहीं,
कराते है. ये कभी जनता को जनार्दन के लिए,
और कभी विधि के लिए, तो कभी
जनार्दन को जगत के लिए प्रेरित करते है.

बात जहाँ तक नीति और राजनीति की है -
काव्य कभी राजनीति करती नहीं,
राजनीतिज्ञों की कसती नकेल है,
काव्य के उदगार को नकारने वाला,
यहाँ पास नहीं फेल है.

जो कविता अल्पायु होती,
वह निःसृत नहीं; सृजित है,
वह मन का उदगार नहीं;
मष्तिष्क की उपज है,
सामयिक बौद्धिकता उसमे
गुम्फित- संचित और संरक्षित है.

मरता है कवि, मगर काव्य अमर है,
यह आत्म कलश से
नि:सृत कल्याणमयी एक रस है.
ह्रदय की कविता सृजन है;
मष्तिष्क की कविता - ध्वंस.
ह्रदय की कविता भजन है;
मष्तिष्क की कविता - व्यसन

ह्रदय की कविता योग है;
मष्तिष्क की कविता - भोग.
ह्रदय की कविता विद्या है;
मष्तिष्क की कविता - शिक्षा.
ह्रदय की कविता व्यापक है;
मष्तिष्क की कविता - सीमित.
ह्रदय की कविता भावप्रवाह है;
मष्तिष्क की - शब्द संयोजन

ह्रदय की कविता सौन्दर्य है;
मष्तिष्क की कविता - सतर्कता.
ह्रदय की कविता झरना है;
मष्तिष्क की कविता - नहर.
ह्रदय की कविता कालातीत है;
मष्तिष्क की कविता - कालबद्ध.

भटक गए है आज लक्ष्य से

भटक गए है आज लक्ष्य से,
संस्कृति से हम दूर हो रहे.
अध्यात्म शक्ति को भूल गए,
भौतिकता में ही मशगूल रहे.
पूर्वजों की उपलब्धियों में,
छिद्रान्वेषण ही नित करते रहे.
परिभाषाएं स्वार्थ परक,
परम्पराएँ सुविधानुकुल गढ़ते रहे
मोक्ष - मुक्ति, निर्वाण - कैवल्य,
फना -बका में ही उलझे रहे.

श्रेष्ठतर की प्रत्याशा में,
वर्चस्व की कोरी आशा में;
अंहकार - इर्ष्या में जलकर,
अरे ! देखो क्या से क्या हो गए?
बनना था हमें 'दिव्य मानव',
और बन गए देखो ' मानव बम'.

इससे तो फिर भी अच्छा था,
हम 'वन - मानुष' ही रहते.
शीत - ताप से, भूख -प्यास से,
इतना नहीं तड़पते.

अरे! भटके हुए धर्माचार्यों,
हमें नहीं स्वर्ग की राह दिखाओ.
कामिनी- कंचन, सानिध्य हूर का,
भ्रम जाल यहाँ मत फैलाओ.
दिव्यता की बात भी छोडो,
हो सके तो; मानव को मानव से जोडो.

अब रहे न कोई 'वन मानुष',
अब बने न कोई ' मानव बम'.
कुछ ऐसी अलख जगाओ,
दिव्यता स्वर्ग की; यहीं जमीं पर लाओ.
अब हमको मत बहलाओ,
दिव्यता स्वर्ग की; इसी जमीं पर लाओ.

समय बदल चुका है

हाँ भाई ! समय बदल चुका है,
बदलाव की इस आंधी में;
बह चले हैं- हमारे पुरातन संस्कार,
पुरानी संस्कृति - सभ्यता और विचार,
टूट रहें है, हमें पालने वाले संयुक्त परिवार.

किसी को बहुत गहराई तक मत कुरेदो;
याद रखो इस बहुमूल्य कथन को -
हर देदीप्यमान वस्तु नहीं होता - कंचन.
हर पुरानी वस्तु अनुपयोगी नहीं होती;
उसी तरह हर नई वस्तु उतनी उपयोगी भी नहीं
जितनी दिखती है, अवाश्य्काका विवेक की है,
परन्तु कौन समझ रहा? सब भाग रहे है-अंधाधुंध.

आज इंसान और प्याज में जो गहरा नाता है,
वह भोले -भाले इंसान को देर में समझ आता है,
इंसान अपनी शक्ति, शांतिमय जीवन विताने,
अपनी पसंद की सरकार बनाने में लगाता है.
पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों को निभाता है,
यह दाल चाहे जितनी महँगी हो जाये,
उसमे कहाँ इतना दम ? यह तो प्याज ही है;
जो चुनी हुयी सरकार को अर्श से फर्श पर गिराती है.

खुशहाल घरौंदा, मजबूत रिश्ते, अटूट बंधन;
जब जातें हैं दरक, बाजी जब हाथ से जाती है सरक.
तब जाकर कहीं होश ठिकाने आता है.
पड़ताल करके भी करोगे क्या अब ?
था जिस पर बहुत भरोसा मुझे;
उसी का नाम बार- बार आता है.

इसीलिए फिर कहता हूँ - मत कूदो;
किसी के अंतरतम में बहुत दूर,
अतल वितल सुदूर गहराइयों तक.
मत निहारो किसी को एक टक,
धरती से अनंत आसमान टक.
मत मानो उसे इंसान से भगवान् तक.

क्योकि जब उतरती जायेगी,
उसके लबादे की एक - एक परत,
हर परत देगी बार - बार एक टीस;
नेत्रों में भर आयेंगे ढेर सारे अश्रु,
समझ नहीं पाओगे, यह मित्र है या शत्रु ?
पत्नी है, भाई है, पुत्री है या फिर ......पुत्र.?

जीवन है - औचित्य का प्रश्न

मानव जीवन क्या है?
जन्म से मृत्यु तक की यात्रा
या और भी कुछ?
संस्कृति का वरदान
या प्रकृति की नियति?

यदि संस्कृति का वरदान है
तो ढेर सारे प्रश्न है -
समाधान हेतु; और
यदि प्रकृति की नियति है
तो, वहां प्रश्न कहाँ? और
जहाँ प्रश्न नहीं, वहां विचार कहाँ?
और जहाँ विवेक - विचार नहीं,
तर्क - वितर्क नहीं;
वहां मानवता कहाँ ?
इंसानियत कहाँ? सभ्यता कहाँ ?

और मानवता विहीन,
नैतिकता से हीन हम क्या हैं?
कहीं वही तो नहीं, जिसे
परिभाषित किया गया है -
"मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति" में.

क्या जीवन का प्रथम प्रश्न
औचित्य का प्रश्न नहीं है?
हाँ यही प्रथम प्रश्न है
और महत्वपूर्ण प्रश्न है,
जिसके समाधान हेतु
मानव का सम्पूर्ण जीवन;
अनवरत लगा हुआ है -
भूत से वर्तमान और
वर्तमान से भविष्यत तक.

समय विहंस रहा है;
दोनों को परख रहा है,
प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ कृति पर,
जिसे अपने बुद्धि - विवेक,
ज्ञान -विज्ञान पर दंभ तो है,
परन्तु औचित्य के प्रश्न पर
चिन्तन - मंथन
अनवरत जारी है..........

यह भूत का प्रश्न था,
वर्तमान का प्रश्न है और,
भविष्यत का भी प्रश्न रहेगा.
समय सब कुछ निरख रहा है,
सूक्ष्म दृष्टि से परख रहा है;
दोनों में कितना है अंतर?
भली भांति यह समझ रहा है.

संस्कृति का वरदान -
औचित्य का परिणाम है,
यह मृत्यु को नकार,
मृत्युंजय बनने की प्रक्रिया है.
और प्रकृति की नियति -
उन्मुक्त काम - वासना ,
यौनपिपासा की कुत्सित विकृति है.

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में, पुनः
आ डटे हैं - कौरव और पांडव,
परन्तु गीतामृत पान करानेवाला
वह दिव्य सारथि कहाँ है?
आज का अर्जुन तो व्यामोह में
खडा है, दायित्व और कर्त्तव्य के
द्वंद्व में आज भी फंसा है.

कालचक्र फिर घूमा है;
निर्णय अर्जुन को लेना है, और
यदि द्वंद से निकल नहीं पाया
तो आज, इस वर्तमान का क्या अर्थ है?
फिर तो औचित्य का प्रश्न भी व्यर्थ है.

एक दोस्ती ऐसी भी

हाँ बाबू ! स्वतन्त्रता हमारी अब सात्तोत्तरी हो गई, / कथनी - करनी,
आचार - व्यवहार की खाई / और चौडी हो गयी, / अन्नोत्पादन, /
दुग्धोत्पादन में तो / हो गए आत्म निर्भर, / परन्तु कर्ज का बोझ /
और चौगुनी हो गयी. / भग्गू ने शिकायत की.

प्रत्युत्तर में नेता पुत्र बोला -/ नैतिक प्रगति भी खूब की है हमने, /
लड़ते रहे अराजकता, / अकर्मण्यता और अनैतिकता से बलभर; /
हमारे अंतर के बल को तो देख,/ भ्रष्टाचार से लड़ते लड़ते, /
उसपर विजी पा ही ली, / अब भ्रष्टाचार के प्रेत को / बुरी तरह
हराया है / उसे देश की सीमा से बाहर भगाया है. /
इस विजय का राज मत पूछो / यह गुप्त समझौते में आया है. / ...

पहले भ्रष्टाचार शब्द को / सुविधा शुल्क के आवरण में छिपाया, /
अब इसने भी सेंसेक्स की तरह / जोर का उछाल मारा है, /
जो पहले भ्रष्टाचार था, / अब शिष्टाचार की परिधि में समाया है. /
अन्य देशों में कोई कृति भले ही भ्रष्टाचार हो, / हमारे यहाँ तो
अब शिष्टाचार है, / जीवन का श्रेष्ठ आधार है, / और सच कहूं /
तो हमारी भौतिक सम्पन्नता का....... / यही आधार है.

इस देश की मिटटी से / हमारा गहरा नाता है, / इसलिए देश के /
किसानों को मरने नहीं देंगे, / आखिर हमारी रगों में उन्ही का /
खून - पसीना है.... / उनसे कंधे से कंधा मिला लेंगे,... / उनकी
तसल्ली के लिए / हम भी उनके खेतों में ..../
सोने का हल चला लेंगे, / शर्त बस इतनी होगी, /
खेत का कागज अपने नाम करा लेंगे.

जानता हूँ तू जी नहीं पाओगे, / परन्तु चिन्तां न करो, /
तुम्हारी शहादत, बेकार नहीं जायेगी / तुम्हारे नाम का /
ट्यूबेल लगाउंगा और / तुम्हारी औलादों से काम कराउंगा. /
इस प्रकार मित्र धर्म के साथ - साथ राष्ट्र धर्मनिभाउंगा /

अगले जन्म में / जब तुम इस धरा पर आओगे, /
हमे मंत्री रूप में पाओगे, / तब सच कहता हूँ, /
कृष्ण - सुदामा की तरह / दोस्ती निभा दूंगा /
यदि तंदुल की बजाय भाभी को साथ लओगे.