Sunday, November 28, 2010

राम के निवेदन की प्रासंगिकता: 

लोककल्याण हेतु अवतीर्ण श्रीराम चन्द्र जी ने लंका पर चढ़ाई के लिए तो सागर पर सेतु बाँधा ही था, अपने आचरण और कार्य से भी एक 'धर्मसेतु' बाँधा था. इस धर्मसेतु की रक्षा होती रहे, इसके लिए वे सतत प्रयासरत भी रहे. बाल्यकाल, धनुषयज्ञं , वनगमन, रावण विजय और  राज्यारोहण के पश्चात् भी यह क्रम रुका नहीं.  इसी क्रम में उन्होंने जनता से, प्रजाजनों से, समस्त राज्य कर्मचारियों से, और अपने मंत्रिपरिषद से; एक भावभरा मार्मिक निवेदन, सविनय एक याचना की थी. यह याचना बहुत गूढ़ है, यह जितना जिज्ञासा का विषय है,उससे कहीं अधिक अनुसंधान का विषय-वस्तु है; क्योंकि धर्म तत्व की प्रासंगिकता, अध्यात्म का अर्थ, उसकी सार्वभौमिकता, सबकुछ इस याचना में अंतर्भूत है.क्या थी वह याचना? क्या था इस अनुरोध का मर्म? 'मानस' में तुलसीदास  के शब्दों में वह अनुरोध इस प्रकार है - 


एक  बार  रघुनाथ  बुलाए ,  गुरु  द्विज  पुरबासी  सब  आये. 
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन, बोले बचन भगत भव भंजन.

सुनहु सकल पुरजन मम बानी, कहौ न कछु ममता उर आनी.
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई, सुनहु करहु जो तुम्हही सोहाई .

सोई सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसाशन मानै जोई 
जौं अनीति कछु भाषों भाई , तौ मोहि बरजौ भय बिसराई.  -
 
और 'रामायण' में महर्षि बाल्मीकि के शब्दों में वह याचना इस प्रकार है -

"भूयो भूयो भाविनो भूमिपाला नत्वा नत्वा याचते रामचंद्र: /
सामान्योयं धर्म सेतुर्नाराणं काले - काले पालनीयो भवदभि: //" 

इसका सामान्य अर्थ है कि राम कहते हैं -'हे भूमिपालों, हे भावी भूमिपालों, कृषकों, जमींदारों, भूमि व्यवस्था में सहयोगी राज्य कर्मचारियों, प्रजाजनों !!!... यह रामचंद्र आप सभी लोगों को बार-बार प्रणाम कर विनम्रता पूर्वक यह आगाह करता है कि आप लोग मेरे द्वारा बांधे गए इस धर्मसेतु की रक्षा सदैव करते रहें." परन्तु,'धर्मसेतु' है क्या? राम के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है?

रामकथा और रामचरित्र पर बहुत गहन अध्ययन-चिंतन, मनन-मंथन हुआ है, अनेकानेक काव्य / गद्य साहित्य का सृजन अनेकानेक देशी-विदेशी भाषाओं में भी हुआ है और निष्कर्ष रूप में सामान्यतः इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है; और राम का यही रूप जन सामान्य के बीच प्रसारित और स्वीकृत है. धर्म का हेतु तो मर्यादा है ही, अनिवार्यतः है और साध्य रूप है परन्तु इसका साधन रूप है यही 'धर्मसेतु'. इस साधन के दो प्रमुख पक्ष हैं (१) धर्म का सेतु - विवेक और (२) धर्म का सेतु - विज्ञानं; जो इसे धर्म से जोड़ते हैं. जोड़ने का कार्य सेतु का है; अतएव इसे राम ने 'धर्मसेतु' की संज्ञा दी है. समाज में जो संतवृत्ति के हैं, जो सृजनात्मक गतिविधियों के संवाहक हैं, प्रणेता हैं, उनका गोस्वामीजी ने अन्य लक्षणों के साथ-साथ प्रमुख लक्षण के रूप में विवेक और विज्ञानं को चिन्हित किया है -"विरति विवेक विनय बिग्याना / बोध जथारथ बेद पुराना //". अब यदि कोई प्रश्न करे कि यदि विवेक और विज्ञानं इतना महत्वा पूर्ण है तो इस याचना में यह प्रत्यक्षा क्यों नहीं है? इसके उत्तर में इतना ही कहूँगा -'परोक्ष प्रिया देवानां'; देवों को परोक्ष कथन ही प्रिय है. यह वेद वाणी है और इसी का पालन राम ने किया है.

धर्म का सेतु - विवेक:
राम ने अपने जीवन काल में, अपने आचरण और कृत्य से सदा 'विवेक धर्म' का पालन किया है और इसी की अपेक्षा उन्होंने अपने प्रजाजनों से, राजकर्मियों से और मंत्रिपरिषद से की है. यह याचना न केवल वर्तमान में उपस्थित जनसमूह से है,अपितु यह निवेदन उनसे भी है जो किसी कारण से वहां उपस्थित नहीं हैं. यह निवेदन इतना महत्वपूर्ण है कि उन्हें भी संबोधित है जिनका अस्तित्व अभी नहीं है परन्तु वे राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं. इस संबोधन और निवेदन में 'भूयो भूयो' और 'भाविनो' शब्द उन्हीं के लिए प्रयुक्त हुआ है.

धर्मक्षेत्र में भक्त और भगवान का बड़ा ही प्यारा और अलौकिक सम्बन्ध है. भक्त तो भगवान का दास होता ही है, स्वयं भगवान को भी अपने भक्त का दास बार-बार बनना पड़ता है. भक्त की एक आर्द्र पुकार पर वह दौड़ा-दौड़ा भागा चला आता है और उसकी अभिलाषा पूरी करता है,उसे मनोवांछित फल प्रदान करता है. लेकिन राम चाहे भगवान रूप में परिकल्पित हों, चाहे मर्यादापुरुषोत्तम रूप में अथवा रजाराम के रूप में; हर बार मनोवांछित अभिलाषा पूरी नहीं करते. इस अभिलाषा की परख करते हैं और अभिलाषा की पूर्ति में भक्त के मंगल,उसके हित का ध्यान सर्वप्रथम रखते हैं....और यही तो विवेक है. इसी का पालन उन्होंने विश्वमोहिनी पर मोहित नारद के साथ किया है. अपने भक्त नारद को उन्होंने वह नहीं दिया जो नारद ने चाहा था, अपितु नारद को उन्होंने वह दिया जिसमे उनका कल्याण निहित था. आश्वासन में उन्होंने स्पष्ट कहा - 
" जेहि विधि होई परम हित नारद सुनहु तुम्हार / सोई हम करब न आन कछु वचन न मृषा हमार //" कुछ छिपाया नहीं, और इसका कारण भी साथ ही बता दिया - "कुपथ मांगु रुज व्याकुल रोगी / वैद न देहि सुनहु मुनि जोगी // एहि विधि हित तुम्हार मै ठयऊँ / अस कहि अन्तरहित प्रभु भयऊ //"

यह संसार परस्पर विरोधी गुणों का युग्म है. यहाँ जड़-चेतन, गुण-दोष, उचित-अनुचित का अद्भुत सम्मिश्रण है, भ्रमजाल है और भटकाव है. विवेक से, औचित्य के प्रश्न से ही इसका समाधान हो सकता है. संत वृत्ति और हंस वृत्ति ही इसमें सहायक है - "जड़ चेतन, गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार / संत हंस गुन गहहि पिय परिहरि वारि बिकारि //". इसी प्रकार जप और ताप तो आध्यात्मिक कार्य हैं लेकिन यदि इसका उद्देश्य लोक कल्याण नहीं है तो भेसक इसका विरोध करना चाहिए और यदि क्षमता हो तो उसे नष्ट कर देना चाहिए. समाज का नेतृत्व कर रहे लोकनायकों में यह क्षमता तो होनी ही चाहिए क्योकि समाज को दिशा देने का दायित्व उन्हीं के कन्धों पर है. मेघनाद और रावण द्वारा किये जा रहे तप और यज्ञं को विध्वंश कराकर राम ने इसी विवेक का परिचय दिया है. महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रतिपादित यज्ञं का संरक्षण और मेघनाद/रावण द्वारा प्रतिपादित यज्ञं विध्वंश में परस्पर कोई विरोधाभास नहीं है. यह विवेक और लोकमंगल के आधार पर लिया गया निर्णय है जो सर्वथा उचित है. राक्षसों का यज्ञं सृजन शीलता के विरुद्ध था - 
"मेघनाद मख कराइ अपावन / खल मायावी देव सतावन // अतएव राम को आदेश देना पड़ा -"लछिमन संग जाहू सब भाई / करहु विधंस जग्य कर जाई //" राम स्वयं यज्ञं विरोधी नहीं हैं, हो भी नहीं सकते;. राम का प्राकट्य ही यज्ञं प्रक्रिया द्वारा होता है. यज्ञं के रक्षार्थ ही अपनी जन्म भूमि छोडकर विश्वामित्र के साथ प्रस्थान करते हैं, धनुष-यज्ञं माध्यम से उनका विवाह संस्कार होता है. वन गमन के समय भी जंगल राज का समापन कर विधि - व्यवस्था स्थापित करते हुए नितांत तपस्वी वेश में यज्ञंमय जीवन व्यतीत करते हैं तथा राज्याभिषेक के पश्चात अश्वमेध यज्ञं करते हैं. इस प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन ही यज्ञंमय है. 

राम विवेक के पालन का यदि निर्देश देते हैं, अथवा इसका आग्रह करते हैं, तो इसे स्वयं अपने पर लागू भी करते हैं. स्वर्ण-मृग के सन्दर्भ में स्वयं विवेक का प्रयोग न करने पर अपने आपको कोसते हैं, अपराधी मानते हैं, पश्चाताप करते है. प्रस्तुत है डॉ. पुष्परानी गर्ग के शब्दों में राम का कथन - "किन्तु क्या कहूं तुझसे ही / तुमने बस आग्रह किया / और मैं भी तो / चल पडा तुरत / क्यों नहीं तुम्हे बरजा मैंने / क्यों विवेक मेरा भी तब / हो गया सुप्त / सच ही तो है / जो पत्नी की अनुचित इच्छा / निर्विचार पूरी करते / अपने ही हाथों / जीवन में कांटे भरते / अपराध कहीं मेरा भी है /..." इसी प्रकार समाज का नेतृत्व कर रहे लोग यदि अपनी- अपनी भूलों को मान लें, मान कर सुधार लें तो अराजकता, अनैतिकता और भ्रष्टाचार क्या टिक पायेगा? परन्तु आगे कौन आयेगा? पहला कदम बढाने का औचित्य तो उसका है जो सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान है. जो सत्तावान और क्षमतावान हैं उन्हें ही आगे आना होगा. हमारे देश में आध्यात्मिक मनीषियों ने समाज का नेतृत्व किया है, आज एक बार फिर आगे आकर उदहारण प्रस्तुत करना होगा. रामराज्य लाने के लिए राम के गुणों को अपनाकर, निर्देशों का अनुपालन करना और उनके चरित्र का अनुसरण करना पडेगा.

जंगलराज को समाप्त कर विधिराज लागू करने के लिए ही उन्होंने स्वयं ही अयोध्या के युवराज का पद ठुकरा दिया था. वन गमन तो स्वयं उनकी इच्छा, उनके विवेक का परिणाम है. इसमें कध्यम बनी कैकेयी और स्वयं को कलंकिता बनाकर, उपहास और भर्त्सना सहन कर भी राम की इच्छापूर्ति का साधन बनी. डॉ. पुष्पा रानी गर्ग ने इस घटना का भावपूर्ण एक काव्य विम्ब खींचा है. राम कैकेयी के समक्ष विवेकपूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं - 
"सुनो मातु / बन के आदिम नर किन्नर / जो अब तक हैं / अनजान अवध के शासन से / उन सबको अपनाना है / शासक - शासित के मध्य / एक जो खाई है / उसपर सेतु बनाना है / सद्भावपूर्ण निज कर्मों से / उनमें विश्वास जगाना है /......वन प्रांतर में भी / हो स्थाई / सुख-शान्ति मातु / पहले लक्ष्य यही मेरा / केवल निज की / सुख-शान्ति नही है / काम्य मुझे / जननी मेरी / क्या कहूं तुम्हे / मै पुनः चाहता वन जाना / बस यही कामना है मेरी ..." 

यह प्रस्तुतीकरण ऐतिहासिक रूप से कटना सत्य है और कितना गल्प, यह मै नहीं जानता. इस प्रस्तुतीकरण का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसका सामी राम चरित्र से है. इससे राम चरित्र पर कोई आघात नहीं पहुचता, उसमे न्यूनता नहीं आती लेकिन दूसरी और कैकेयी का कलंक धुल जाता है. और उससे भी बड़ी बात यह है कि लोकमंगल के कार्य में यदि कलंक और अपमान भी ढोना पड़े तो उसे ढोना चाहिए. इसकी प्रेरणा मिलती है और पर्याप्त ऊर्जा भी; केवल स्वीकारने की मनःस्थिति हो. यह एक बहुत बड़ा कल्याणकारी सन्देश छिपा हुआ है इसमें. साथ ही 'नारी सशक्तिकरण' के अभियान में यदि किसी कलंकिता नारी की छवि को निखारा जा सकता हो तो ऐसा क्यों न किया जाय? दूसरी बात यदि यह घटना सत्य है तो कैकेयी तो हलाहल पीकर नीलकंठ के समान स्नेह - सम्मान वंदनीया होनी चाहिए. इस प्रकार डॉ. गर्ग का यह प्रस्तुतीकरण निःसंदेह विवेकपूर्ण और औचित्यपूर्ण है. उन्हें साधुवाद.

जो मनुष्य उचित-अनुचित का विवेक रखते हुए भी औचित्यपूर्ण कार्य नहीं करते, उन्हें क्या कहा जाय? महाभारत का चर्चित पात्र दुर्योधन कहता है - "जानामि नो चरिष्यामि जानामि नो वर्जया
मि". मै जानता हूँ क्या करना चाहिए परन्तु उसमे प्रवृत्ति नहीं होती, इसी प्रकार यह भी जानता हूँ क्या नहीं करना चाहिए; परन्तु उससे निवृत्ति नहीं होती. कहना पडेगा; ऐसे लोग भ्रमित हैं, द्वंदों से घिरे हैं. इस द्वन्द से बाहर निकालने का काम विवेक का है. विवेक पर दृढ आस्था और विश्वास का है. श्रीरामचंद्र अपने नगर वासियों को, मंत्रिपरिषद को; इसी विवेक, इसी आस्था और इसी सृजनशीलता रुपी सेतु से धर्म को जोड़ना चाहते हैं. क्यों जोड़ना चाहते है? क्योंकि वे जानते हैं कि राम के आदर्श का कारण सुशासन है. यह धर्म पर आद्धृत है. धर्म रूपी वृषभ के चार चरण है - सत्य, शौच, दया और दान. इनकी सुरक्षा, इनका संवर्द्धन और प्रचलन तभी सुनिश्चित हो सकता है जब मानवीय विवेक को धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाय. धार्मिकता, आध्यात्मिकता, श्रेष्ठता ऊर्ध्वगामी है जबकि अंध-धार्मिकता, अंध-आध्यात्मिकता, अंध-विश्वास पतन है, अधोगामी है. विवेक-धर्म के साम्राज्य में अपराध और पाप के लिए कोई स्थान नहीं - "चारिउ चरण धर्म जगमाही / पूरि रहा सपनेहु अघ नहीं//" यही 'विवेक' धर्म सेतु है, यही राम कि याचना का मर्म है क्योकि अध्यात्म का क्षेत्र जिस नैतिकता, सचरित्रता, इमानदारी और जिस जिम्मेदारी की मांग करता है, यह विवेक इस समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति एक साथ कर देता है.




(अगले पोस्ट में आप पढेंगे, धर्म का सेतु - 'विज्ञान')