उसमे लिपटी सुरसरि है,
वक्र चन्द्र है भाल विराजे
गले में सर्पों की माला है.
शोभित शक्ति वाम में उनके
वाहन सिंह बैठा है सामने.
बार-बार वह नंदी बैल को,
जाने क्यों देखो घूर रहा है....
नंदी भी आँख मिलाये उससे
न जाने क्या बात कर रहा.
पलकों को अपने नचा-नचा,
मैत्री सन्देश को सुना रहा है.
उधर सर्प की माला पर देखो -
मयूर की तीखी नजर गाड़ी है.
पर दृष्टि है सर्प की मूषक पर
जो मोदक हाथ लगाय रहा है.
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ज्यों मातु पिता, भाई भाई
बहनों ने गाढ़ी प्रीती बढ़ाई है,
वैसे ही ये जीवन-शत्रु परस्पर
आपस में एकता-मैत्री बनाई है.
यह तो उनकी वृत्ति-प्रवृत्ति है
मिटती नहीं यह जल्दी है.
अनुरक्ति अपर्णा की शिव से
सुरसरि से नहीं विरक्ति है.
वाहनों में देखो मिटा वैर सब
अब स्नेह - सद्भाव बढ़ाया है.
निज वैर- भाव भुलाकर के...
मानव को सन्देश सुनाया है.
गुणों में भेद जीवन में भेद
शैली में भेद गति में भी भेद
आकृति में भेद प्रकृति में भेद
भेदों के बीच सब एक- 'अभेद'.
वैर न जाने कहाँ खो गया..?
मिटा वैर और प्रेम हो गया.
हे भोले! तुम सन्देश सुनाते
स्नेह सद्भाव का पाठ पढ़ाते
काश आप से सीख हम पाते.
.जीवन में अपने इसे निभाते.
इतनी कठिन परीक्षा न लो
अपने बंद अधर अब खोलो!
चाहते हो - 'मानव में एकता'
एक बार मुख से यह बोलो!!
अपने बंद अधर अब खोलो!!
अपने बंद अधर अब खोलो!!