अभी दिल्ली का निर्भया काण्ड, लखनऊ काण्ड भूल भी नहीं पाये थे कि हो गया हरियाणा का ‘वर्णिता काण्ड, बलिया का ‘रागिनी-काण्ड’ और अब लखीमपुर खीरी मे 13 वर्षीय बच्ची के हाथ काटने का वीभत्स और भयानक समाचार।
ओह ! ऐसी दरन्दगी ! यह हैवानियत? इंसानियत का इतना अधः पतन ! इंसान की क्रूरतम करतूत, ये वहसी वासना के ‘क्रूर दूत’ कहाँ से आ टपके हैं आजकल? जब देखो, जहाँ भी देखो, शहर मे, गाँव मे, कभी यहाँ, कभी वहाँ, कभी इस शहर, कभी उस नगर...। न जाने कहाँ से प्रतीक्षित होकर घुस आए हैं ये नर-पिशाच अपने सभ्य, सुसंस्कृत समाज मे? आखिर कौन है इसका जिम्मेदार?
क्या केवल उनकी आलोचना करके, कोसकर, गालियां देकर, मुट्ठियाँ भींचकर, बैनर निकालकर, मोम बत्तियाँ जलाकर या मौन जुलूस निकालकर मुक्त हो सकते हैं हम सब अपने स्वतः स्फूर्त नागरिक होने के अपने सामूहिक दायित्व से? बढ़ती इस निकृष्टतम विकृति, प्रवृत्ति से?
नहीं, कभी नहीं, कहीं से भी नहीं। वासना के ये भूखे भेड़िये पलटे हैं हमारेही घरों मे छुप- छुप के। पाते हैं पनाह हमारे ही आगोश मे। पढ़ते हैं हमारे ही विद्यालय मे, करते हैं कारी हमारे ही कार्यालय मे। कहीं न कहीं पाते हैं सहारा, अवलंबन और मौन प्रोत्साहन भी, हमी, आप से, जाने – अनजाने में। बिना हमारे अवलंबन के कैसे हो सकते हैं ये इतने दु:साहसी? इतने सबल? किसी न किसी रूप मे हमी सब हैं इनका परोक्ष बल।
नहीं, कभी नहीं, कहीं से भी नहीं। वासना के ये भूखे भेड़िये पलटे हैं हमारेही घरों मे छुप- छुप के। पाते हैं पनाह हमारे ही आगोश मे। पढ़ते हैं हमारे ही विद्यालय मे, करते हैं कारी हमारे ही कार्यालय मे। कहीं न कहीं पाते हैं सहारा, अवलंबन और मौन प्रोत्साहन भी, हमी, आप से, जाने – अनजाने में। बिना हमारे अवलंबन के कैसे हो सकते हैं ये इतने दु:साहसी? इतने सबल? किसी न किसी रूप मे हमी सब हैं इनका परोक्ष बल।
वासना में आकंठ डूबे पतित इंसान की अंतरात्मा तो कब की मर चुकी होती है, क्या हमारी अन्तरात्मा जीवित है? सभी को एकबार इसपर सोचना होगा। जिसे जहां से भी हो सके, जैसे हो सके ऐसे घिनौनेकृत्य को अब रोकना होगा। यह दुष्प्रवृत्ति रुकनी चाहिए, अभी से, इसी क्षण से। लेकिन यह दुष्प्रवृत्ति रुकेगी कैसे.....? पार्श्व से नीरज ने दिया सुझाव –
“आदमी को आदमी बनाने के लिए /
जिंदगी मे प्यार की कहानी चाहिए /
और कहने के लिए कहानी प्यार की /
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए” ।
“आदमी को आदमी बनाने के लिए /
जिंदगी मे प्यार की कहानी चाहिए /
और कहने के लिए कहानी प्यार की /
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए” ।
सचमुच सूख सा गया है हमारे नयनों का पानी, सड़कों पर ललचाई सी घूरती रहती है आज कि जवानी। आज की तरुणाई को जगाना होगा, मदहोश है वो, उसे होश मे लाना होगा। इन्हे प्रेम के सात्विक स्वरूप का बोध करना होगा। यह ज़िम्मेदारी, यह दायित्व साझा है, सबका है, यह बीड़ा उथनी होगी, इससे पीठ मोड़ना उचित नहीं।
डॉ जयप्रकाश तिवारी