Tuesday, August 13, 2013

स्वतंत्रता दिवस: वर्तमान सन्दर्भों में

माह अगस्त है महत्पूर्ण और
अति विशिष्ट, क्योकि किया है इसने
१५ अगस्त के पावन पर्व को संश्लिष्ट /
६६ वर्षों से हम परम्परा एक निभा रहें है,
घिसी -पिटी वही पुरानी कैसेट
नई पीढी को बार-बार सुना रहें है  

 अवकाश नहीं नई पीढ़ी को.
कुछ कहने, सुनने, गाने को;
वह तो भाग रही है, मचल रही है,
आर्थिक स्वातंत्रता पाने को  । 

परन्तु स्वतन्त्रता क्या चीज है,
इसे आज समझाना होगा /
कितनी शीश चढ़ाई, कितनी
जान गवाई, आज बतलाना होगा

 छिड़ जाती है, प्रायः यह बहस कि
श्रेष्ठतर क्या है - जंगलराज,
राजतन्त्र या लोकतंत्र?
हमने सभ्यता के नाम पर,
जंगलराज ठुकराया / स्वराज्य के
नामपर विदेशियों को भगाया
समाजवाद - मानवतावाद के नाम पर 

लोकतंत्र को अपनाया /
यह सही है कि लोकतंत्र आया,
66 वर्ष पूर्व आया परन्तु पप्पू
जैसों का प्रश्न भी अटपटा नहीं है.
याद है अभी तक मुझे वह दिन,

जब स्वतन्त्रता का अर्थ बताने,
उसके पीड़ित बाप के साथ उसके घर  
तब पप्पू कितना झाल्लाया था,
प्रश्नों की झड़ी सी लगाया था  -
"इस जंगे आजादी में, पुत्र और दामाद
खोनेवाला किसान आज कहाँ है?
मजदूरों का अपना अधिकार कहाँ है?
हमारे आपके सुनारे ख़्वाबों कि तश्वीर कहाँ है?
हमारे आदर्श और इम्मान कहाँ हैं?
समानता का अधिकार कहाँ है?
नगर पालिका के स्ट्रीट लाईट के नीचे बैठकर,
भौकते हुए गली के आवारा कुत्तों की कर्कश आवाजों के बीच,
निःशब्दता के साथ पुस्तकों में समाधि
लगाने वाले विद्यार्थियों की तकदीर आज कहाँ है
देश की नित बढती जा रही आबादी में,
मानव कहाँ है? लोग तो बहुत दीखते हैं,
मगर वह इंसान कहाँ है? बोलिए आप चुप क्यों हैं?"

 
मैंने समझाना चाहा था, देखो ,
समानता का अधिकार, सूचना का अधिकार,
मजदूरों का अधिकार...लागू हो गया है..
मेरी बात अनसुनी कर वह फिर से चिल्ला पडा था - ....
"आपलोग केवल लेक्चर दे सकते हैं कक्षाओं में,
झूठा आदर्शवाद पढाते हैं कक्षाओं में /
केवल ब्लैकबोर्ड  रंगते हैं आपलोग / ..........

बताता हूँ भीड़ है जातिवादी नेता के पीछे,.
परन्तु मानवता उसके जूते के नीचे /
संविधान- विधान सब संसद में,
नियम - क़ानून सब मेज के नीचे.
मैं जानता हूँ आप लोगों की जुबाँ बंद रहेगी.
आप कुछ नहीं बोलेंगे ..लेकिन सुनिए...
सेवाव्रत खाकी जो पिसता रहता है,
खादी और हट के बीच निरंतर..
डियूटी पर बन्दूक थामे उसके दोनों हाथ,
पिसते रहते हैं, इन्ही दो पाटों के बीचमे.  
हैवान बन जाने की खबरों का कारण
यही आक्रोशौर दबी-कुचली भावनाएं हैं
जो बीभत्सता के रूप मर बाहर झांकती हैं.
प्रहरी आखिर दूसरों की ही नहीं अपनों को भी
मारता है. उसे कौन सताता है? ...आपही बताइये,
खादी की नीयत, अभियंता की तकनीक,
डॉक्टर की सिरिंज, पुलिस की सेवा भाव  खोट क्यों है?...." 

 
उग्र पप्पू के प्रश्नों को सुनकर,
अब हनारे समझ में आया कि पप्पू
प्रतक्रियावादी क्यों और कैसे बन गया?
पिता को स्नेह सम्मान देने वाला
एक होनहार बालक, राजनीति के
व्यामोह में कैसे फंस गया?
उसके प्रश्नों ने मुझे एक मिशन दिया,
संवेदनाओं ने हमें चिन्तक बना दिया,
अच्छा -ख़ासा बैठा था, हाथ में लेखनी थमा दिया.

 
अब भी निराश नहीं हूँ मै.
देश के इन पप्पुओं को बहकाने से बचाना होगा.
क्योकि ऐसे देश द्रोहियों और नरपिशाचों कि
कमी नहीं जो इनकी कोमल भावनाओं का लाभ उठा लेते हैं.
इन बच्चों को बहला-फुसलाकर उन्हें
एक-४७ और एक-५६ जैसे घातक हथियार पकड़ा देते हैं.

 
इन परिस्थितियों में,
सर्वथा उचित तो यही होगा कि
स्वतंत्रता के इस पावन पर्वपर
यह संकल्प लिया जाय कि अधिकार और दायित्व,
प्रगति और उत्थान संवैधानिक मर्यादा अंतर्गत
संतुलित और सुनियोजित होगी. /
संतुलन और समग्रता की स्थिति में
हर प्रगति बन जाएगी एक त्रिज्या और
हम एक 'वृत्त', एक 'शून्य', एक 'अनंत'...

 Dr. Jai Prakash Tiwari