Friday, December 2, 2011

सितारों के उस पार का संसार

सुना है -
सितारों के भी आगे
आकाश गंगा में बसा हुआ
एक संसार और भी है,
जहां अशुभ और पाप का
अनाचार और भ्रष्टाचार का
नामोनिशान भी नहीं.



यदि है
ऐसा कुछ तो
जायेंगे एक बार जरूर.
यही देखने के लिए,
परखने के लिए.



जानता हूँ,
लौटकर वापस
फिर यहीं आना है,
इसी धरती पर,
अपने इसी देश में.


क्योकि
कलुषित मन और
दूषित तन का
नहीं है वहाँ गुजारा.

लेकिन,
रुकना भी किसे है वहाँ?
हमें तो केवल जानना है -
वह सूत्र, वह सिद्धांत,
वह कर्म, वह धर्म, वह मर्म.
जिसके कारण वहाँ ऐसा है.

उस सूत्र को,
उस सिद्धांत को
आजमाएंगे,अपनाएंगे,
पूरे विश्व में फैलायेंगे.
और इस जहां को ...
अपनी मातृभूमि को,
उस जहां से भी 

सुन्दर बनायेंगे.

कुछ चर्चा: गीत और ग़ज़ल की

कुछ आलोचक
कहते हैं -
उड़ गयी चिड़ियां
अब गीत की,
खो गए मयूर
अब ग़ज़ल के,
कुंद हो गयी धार
अब कविता की.
खो गए गिद्ध
शास्त्रीय संगीत के.

लेकिन
हमे तो अब भी
आते हैं नज़र गीत,
चहचहाती गौरैया
के रूप में,
कभी आँगन की
अरगनी पर बैठे,
कभी दाना चुगते
उसी आंगन में.
कभी मुडेर पर,
और कभी कोटर 

में 
दुबके हुए
कबूतर बनके.

ग़ज़ल गाते
थिरकते हुए मयूर
अब भी आते हैं नज़र,
कभी खलिहान के पीछे
कभी गन्ने के खेत में.
पीली सरसों के फूल में,
मटर की छेमियों में,
गेहूं की बाली और
अरहर के गोल दाने में.

और कविता?
वह भी तो
सुनाई देती है -
माँ की लोरियों में.
बहन की राखी में,
पिता की फटकार में.
भाई के दुलार में.
उनकी धुन और राग
भले ही बदल गयी हो,
भाव तो वही है -
ममत्व भरा, स्नेहभरा
वात्सल्य से ओतप्रोत.

गीत,
ग़ज़ल और कविता,
केवल मूर्त ही नहीं होते,
ये तत्त्व हैं - आह्लाद के,
स्पंदन है - ह्रदय के,
धडकन हैं - दिल के,
भाव हैं - जिगर के.

जो
होठों पर थिरकते,
शब्दों में उछलते.
ध्वनियों में हैं -
लहराते, बलखाते.
नयनों से झरते और
डायरियों, कैनवास
को हैं भिगो देते.

चिड़ियों के
कलरव में ये बिखेरते हैं,
न जाने कितने ही
रंगीन, ग़मगीन आसमान,
कितने ही इन्द्रधनुष,
उषा और संध्या के बादल,
ओले, कडकती बिजलियाँ,
और गोल-गोल ओस की बूंदें,

मयूर के
इस नर्तन में ही छिपें हैं
न जाने कितने संगीत?
 कितने वाद्य यंत्र?
पॉप भी, क्लासिकल भी.

गीत तो
दिल के कानों से
हैं सुने जाते,
जब गुंजित होता है
यह गीत, तो फिर
यही गूंजता है -सर्वत्र,
दसों दिशाओं में.

दूसरी कोई
ध्वनि-प्रतिध्वनि,
सुनाई भी नहीं देती तब.
है यह जितना मूर्त,
और मुखर,
उतना ही अमूर्त
और मौन भी.

यह प्रेम
और वेदना में
फूटता है,
जब यह है अमूर्त,
तो इतना,
कहीं नजर नहीं आता,
एकदम अदृश्य,
अरूप, अस्पर्शी.

जब
होता यह मूर्त
तो इतना कि दूसरा
नजर नहीं आता
सिवाय इसके.
बस! तू ही तू है दीखता,
छान्दोग्य के भूमा की तरह.

बात,
केवल संवेदना की है,
ग्राह्यता, अनुभूति की है.
चिड़िया, मयूर और कबूतर,
अपनी अन्तःप्रेरणा से
हैं गाते, चहकते, फुदकते.

उन्हें
विसरित नही होता,
यह नीला 
खुला अम्बर ,
इन्द्रधनुष सी रंगीन
गीले ओस की बूंदें.
भीगीं पलकें, अन्न के दाने,
झरने का नीर, नदी का तीर.

इनमें ही
ढूंढ लेते हैं ये -

खुशियों के तिनके. 
संभावनाओं के

सूरज, चाँद, सितारे...

इसलिये 
गाते हैं मरुभूमि में भी,
पर्वत और खाइयों में भी...
कहने वाले
उनकी इस उच्छ्वास
और अभिव्यक्ति को,
कहते है -
गीत और छंद,
ग़ज़ल और कविता.

चिड़ियाँ
उड़ सकती हैं -
गीत नहीं,
मयूर
खो सकते हैं -
गजल नहीं,

गिद्ध
मिट सकते हैं -
संगीत नहीं!

और कविता 
नहीं हो सकती है
कभी कुंद और मंद,
कविता तो जीवन है,
श्वासों का स्पंदन है.

इसलिए सीमा पर डटकर वे झेलते हैं गोली.


खुश हो लेते हैं हम नकली पटाखे छोडकर
नाच उठाते उमंग से हम अनार को जलाकर.
 
जरा सोचो ख़ुशी उनकी, उमंग तरंग उनकी
जो गोले छोड़ते हैं, बम असली फोड़तें हैं.
 
हम माना सकें दीवाली, हम खेल सकें होली
इसलिए सीमा पर डटकर वे झेलते हैं गोली.
 
हम सजाते दीपक से घरों को, घी-तेल डालते है.
हमारा भविष्य सवारते वे, अपना लहू जला के.
 
आज आइये! नाम उनके कुछ दीप हम जला दें.
हो गए हैं जो शहीद, उन्हें दीप मालाओं से सजादे .