Friday, September 7, 2012


काव्य-संग्रह ‘कस्तूरी’: जैसा मैंने समझा
(भाग - ३)

संकेत और प्रतीक पहुचते हैं शब्दों की सीमा से आगे
दिखलाते हैं राह वहाँ तक, जहाँ शब्द पहुच नहीं पाते
लेकिन चलकर उसके आगे ये प्रतीक भी हैं लड़खड़ाते
निश्चित एक सीमा से आगे, वे भी तो जा नहीं पाते

प्रेम सर्वथा स्वतंत्र है, यह किसी बंधन को नहीं मानता, यदि मानता भी है तो प्रेम के ही बंधन को. यही प्रेम नैतिकता, ईमानदारी, वफादारी बनकर उत्सर्ग के सर्वोच्चशिखर तक पहुचने का साहस – संबल - प्रेरणा देता है. प्रेम तो प्रेम है, उसमे छोटे-बड़े का भेद कैसा? आभासी भेद यदि कही है भी तो इसके स्वरुप में है, संवेदनाओं की सघनता-विरलता में है, अभिव्यक्ति में है, मूल्यों में है. भौतिकता का अपना एक अलग मूल्य है, आधात्मिकता, मानवता का अलग. लेकिन जिसमे मानवता नहीं, इंसानियत नहीं, नैतिकता नहीं, ईमानदारी नहीं, राष्ट्रीयता नहीं... समझ लेना चाहिए वहाँ प्रेम भी नहीं, प्रेम नाम से कुछ और है .. धोखा है .. फरेब है ... छल है .. यही सब मिलकर कुचक्र रचते हैं, निर्मल-पवित्र प्रेम को दागदार-धब्बेदार बनाते है, कलंकित करते हैं. हाँ! इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि प्रेम स्वयं अपने आप में अद्वितीय होता है चाहे कोई भी करे.., चाहे जिसे भी यह हो जाय... रचनाकार के द्वारा प्रस्तुत इस तर्क में पर्याप्त बल है और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि- ‘प्रेम के विविध रंग-रूप-स्वरुप होते है / और शायद हर कोई इनमे / कभी न कभी ढला भी होता है / रंगा भी होता है, जिया भी होता है / इसलिए प्रेम की व्याख्या का अधिकार / हम किसी से नहीं छीन सकते’. रचनाकार प्रेम का विभाजन, बटवारा, वर्गीकरण नहीं चाहता. प्रेम या तो ‘है’ अथवा ‘नहीं है’. बीच की कोई भी स्थिति उसे स्वीकार नहीं. कवियित्री का आरोपण है मानव समाज से, उसके सामाजिक मूल्यांकन से, जिसे वह पक्षपात-पूर्ण, भेदभाव-पूर्ण मानती है. उसका सीधा-सीधा निहितार्थ है कि प्रेम में भावना-प्राधान्यता से ही उसका मापन होना चाहए, ज्ञान-विज्ञान से नहीं. वह तर्क करती है - ‘कृष्ण ने गीता सार कह दिया / तो वे पारलौकिक की श्रेणी में आ गए / और जो इससे परे हैं, परन्तु प्रेम में रत हैं / क्या उनका प्रेम अमर नहीं? / प्रेम में हर पुरुष कृष्ण स्वरूप है / और हर नारी स्वयं में राधा’. मुझे लगता है यहाँ कुछ विभ्रम की स्थिति है, कृष्ण की अलौकिकता का कारण केवल गीताज्ञान नहीं है. यदि गीताज्ञान को परिदृश्य से हटा भी दिया जाय तो भी उनके व्यक्तित्व और चरित्र में कोई न्यूनता नहीं आने पाएगी. दूसरी बात, गीताज्ञान अर्जुन को कर्त्तव्य बोध करने के लिए दिया गया था, स्वयं उसके अनुरोध पर. कर्त्तव्यपरायणता और लोकमंगल ही तो प्यार है, प्रेम है. इसका संकेत ऊपर किया भी जा चुका है. हाँ, जहाँ तक राधा-कृष्ण के प्रेम की बात है, वह अलौकिक है. संसारी नही, दैहिक नहीं, भौतिक नहीं. अध्यात्मिक है. और यही प्रेम का अपना मानक भी है. इसी मानक से अभी तक प्रत्येक प्राणी के प्रेम को मापा गया है और आगे भी आदर्श प्रेम का यही मापन बना रहेगा सदियों तक. यदि कोई कृष्ण और राधा सा उदहारण प्रस्तुत कर सके तो निश्चित ही वह समक्ष मन जायेगा. लेकिन यह सरल नहीं... प्रथम स्थिति में तो यह आग की दरिया है जिसमे डूबकर उसपार प्रियतम के पास जाना पड़ता है. प्रेम की प्रौढता में कहीं आने-जाने की आवश्कता भी नही पड़ती. जब भी जी चाहा, दिल का पर्दा उठाया और दीदार कर ली. सर्वोच्च अवस्था वह है जब दोनों एकाकार हो जाते है, तब पहचान कठिन हो जाती है, कौन है राधा? और कौन है कृष्ण? वास्तव में राधा कोई अलग व्यक्तित्व नहीं, वह कृष्ण की चिति-शक्ति है, प्रेरणा है और गति भी. जिस प्रकार ‘शक्ति’ के बिना ‘शिव’ भी शव हैं, उसी प्रकार राधा के बिना कृष्ण का भी मूल्य नहीं. गीता की अभिव्यक्ति में राधातत्व का ही प्रस्फुटन है, गीता-ज्ञान राधा है, अर्जुन का साख्य-भाव राधा है, उसकी जिज्ञासा, प्रेरणा भी राधा-शक्ति ही है. अर्जुन के प्रेरित करने वाली भावना-शक्ति भी राधा-शक्ति ही है. इन सभी शक्तियों का स्त्रीलिंग वाचक होना इसका स्पष्ट संकेत है. कोई समझ पाए, न समझ पाए, यह अलग बात है.

यह तो सत्य है कि प्रेम का कोई स्वरुप नहीं होता. कोई आकार नहीं होता, कोई लिंग नहीं होता. प्रेम तो इतना सरस और तरल है कि जिस पात्र से यह जुड़ता है उसी का रूप-स्वरुप, आकार-प्रकार-लिंग ग्रहण कर लेता है. इस लिए प्यार कि परिभाषा अत्यंत कठिन है. फिर भी यदि परिभाषित करना ही पड़े तो कहा जा सकता है कि प्यार अनुराग और अनुभूति का वह संगठित-संघनित भाव है जो शिशु के साथ ‘वात्सल्य’, बालक के साथ ‘स्नेह’, युवा के साथ ’प्रेम’, बड़ों के साथ ‘अभिवादन’, माता-पिता के साथ ‘श्रद्धा और अपने आराध्य के साथ ‘भक्ति’ के रूप में प्रकट और व्यवहृत होता है. और इसके बदले में जो वापस मिलता है अभिवादन’ और ‘आशीर्वाद’ के रूप में वह भी तो प्यार ही है. इस प्यार के अनेक रूप हैं.. यहाँ तक कि नफ़रत – ईर्ष्या – द्वेष भी नकारात्मक प्यार ही है. यदि प्यार प्रेरक शक्ति है, तो ये सभी प्यार के ही रूप-स्वरुप है. उद्देश्य और लोक मंगल की दृष्टि से एक सृजनात्मक है तो दूसरा विध्वशात्मक. सृष्टि का सृजन ही प्रेम का परिणाम है, इसलिए विध्वंश को प्रेम का रूप नहीं माना जाता. लौकिक दृष्टि से, विधि-व्यवस्था की दृष्टि से तो यह विभाजन उचित है लेकिन तात्विक दृष्टि से, आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं.

यह युवा वर्ग प्रेम को परंपरागत रूप से अनुकरण करना नहीं चाहता. वह प्रश्न और प्रतिप्रश्न करता है- बेहिचक, तर्कपूर्ण युक्ति के साथ. इस तर्कपूर्ण विवेचना का ही परिणाम है निष्कर्ष रूप में यह उपलब्धि – ‘निश्चय ही / प्रेम विराट है / और दृढ भी’. इस उपलब्धि के लिए यह युवावर्ग बधाई के पात्र हैं. प्रेम तर्क का विषय नहीं है, यह माप तौल का विषय भी नहीं है. लेकिन विज्ञान और भौतिकता से प्रभावित युवामन की प्रत्येक कसौटी में कहीं न कहीं विज्ञान की, भौतिकता की, आधुनिकता की झलक मिल ही जाती है. एक कविता जिसका शीर्षक है –‘एक पाती पांचाली के नाम’ उसमे वह प्रेम के सन्दर्भ में एक नए विमर्श को जन्म देती है कि ‘प्रेम बलिदान मांगता है’. क्या प्रेम वास्तव में बलिदान की मांग करता है? यह एक विचारणीय प्रश्न है. बलि देने में वाह्य बल कार्य करता है, इसमें बलि चढ़ाये जाने वाले की एक प्रकार से हत्या की जाती है. यदि केवल बलिदान देने से ही प्रेम की प्राप्ति हो जाय तो यह सौदा महंगा नहीं है. भावना के वशीभूत या उन्माद में, उकसावे में, तंत्र-मन्त्र द्वारा लाभान्वित होने के लिए अथवा लोकलाज से लोग ऐसा कभी-कभी आज भी किया भी करते है, परन्तु क्या वास्तव में उन्होंने यह कृत्य प्रेम में किया है? प्रेम के लिए किया है? प्रेम केपी दायत्व पूर्ती के लिए किया है? उत्तर निश्चित रूप से होगा - ‘नहीं’. प्रेम वलिदान की मांग कभी नहीं करता. प्रेम तो श्रद्धा–भक्ति और समर्पण की वस्तु है, मान-सम्मान-अभिमान, तन-मन-धन, सर्वस्व समर्पण ही प्रेम है, प्रेम का उत्सर्ग है.

राष्ट-प्रेम भी बलिदान की नहीं, उत्सर्ग की ही मांग करता है. समाज में, राष्ट्र में व्याप्त  अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार शोषण का सामना करते-करते एक दिन वह स्थिति आ जाती है जब अन्दर सोया पुरुषार्थ भी जागृत हो उठता है. नहीं ... अब ... और नहीं...., बहुत दिन सह लिया.. बहुत ज्यादा सह लिया.. अब और नहीं सहूंगा... मिटा डालूँगा इसे.... अन्याय का यह अस्वीकार बोध मानव-मन को दो विकल्प उपलब्ध कराता है- प्रथम, हम अन्याय और शोषण की ओर से पूरी तरह विरक्त हो जाय, यह मान लें कि हमारे चरों ओर जो कुछ घटित हो रहा है हम उसके सहभागी नहीं है. इसमें कुछ नहीं कर सकते. यह नियति, ऐसा होना था इसलिए हो रहा है. अतएव हमारा कोई दायित्व नहीं. द्वितीय; यह स्थिति अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचा से सीधे प्रतिकार और टकराव का है. पहली  स्थिति पलायनवादिता की है, विवशता और पराधीनता की स्थिति है. दूसरी स्थिति अन्याय से आमने-सामने जूझने की स्थिति है जहाँ जीवन का मोह निरर्थक हो जाता है. और मृत्युवरण पहली शर्त बन  जाती है. जहां मृत्यु में उद्देश्य, सौन्दर्य और प्रकाश दिखाई देने लगता है. तब मन बोल ही उठता है- 'पहिला मरण कबूल कर जीवन की छड़ आस', यहाँ मृत्यु की कोई चिंता नहीं और जीवन से कोई मोह भी नहीं. बिना तत्त्वज्ञान के यह होता भी नहीं. वह शक्ति-साहस और ऊर्जा तभी मिलती है जब व्यक्ति में ज्ञान, प्रेम और कर्त्तव्यबोध का उदय होता है. जब ऐसा होता है तो वह अन्याय को सहने से इनकार कर देता है.  इन परिस्थितियों में प्राणोत्सर्ग करना पड़ता है. राष्ट्रीयता को सर्वोपरि और सर्वोच्च मानकर ही अपना अगला कदम उठाना होगा. व्यक्तिगत हितों की, स्वार्थों की, व्यापक हित के लिए होम करना पडेगा. यदि हम राष्ट्र के नाम पर इस दायित्व बोध को समझ सकें तो यही जागृति है, यही आज का आत्मोत्सर्ग है, अह्मोत्सर्ग है. अहंकारोत्सर्ग है, जिसे बलिदान भी प्रायः कह दिया जाता है.. 

यह तो हुआ राष्ट्रप्रेम की दृष्टि से. अब  यदि हम मूल्य की दृष्टि से बात करें, तो मूल्य की दृष्टि से प्रेम सर्वोच्च मूल्य है, यह परमशुभ है. परमशुभ में हिंसा नहीं हो सकता, अतएव कहाँ ही पड़ेगा कि प्रेम कभी भी बलिदान की मांग नहीं करता. प्रेम द्विपक्षीय भी होता है और एक पक्षीय भी... हाँ, प्रेम में प्रेमी-मन अपना उत्सर्ग करता है, अपने को होम करता है, अपने सर्वोच्च आदर्श अथवा आराध्य के आदर्श के लिए. बलिदान और उत्सर्ग के इस सूक्ष्म अंतर को समझना होगा हमें.
                        
                        क्रमशः
                                 डॉ. जय प्रकाश तिवारी
                                  संपर्क – ९४५०८०२२४०

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