एक पत्र: शिवशंकर के नाम
गंगा धारण किये हो सिर पर
फिर भी नेत्रों में ज्वाला है..,
है भूषित भाल वक्र चन्द्र से
उर उदधि तरल सहजता है.
है गले हलाहल का प्याला
लिपटे उसपर विषधर माला.
वे लपक लपक नि:श्वांस छोड़ते
ज्यों उठे मही अंतर की ज्वाला.
लेकिन आप अलिप्त सभी से
अप्रभावित निर्लिप्त सभी से.
मृदुल हास्य परिहास करते हो
रच जाल उसी में खुद फंसते हो.
पाश हाथ, डमरू की धुन पर
काल चक्र में गति भरते हो,
कभी लेते नहीं हो दोष स्वयं पर
परिस्थितियाँ सारी खुद रचते हो.
हे शिव शंकर! , हे त्रिपुरारी !!
हे आशुतोष ! हे भवभयहारी!!
हे प्रलयंकर ! हे अभ्यंकर !!
हे औघड़दानी! हे गंगाधर !!
एक कान में नर का कुंडल
दूजे शोभित नारी की बाली,
अर्द्ध अंग मृग चरम है लिपटी
अर्द्ध अंग चुनरी की साड़ी.
नाच-नाच कर किसे नचाते?
हे भोले ! तुम किसे बुलाते?
सब कुछ तो उर में धारण है,
नृत्य मनोहर किसे दिखाते?
तुम आप्तकाम, तुम कामरूप,
तू निराभिमान, अभिमान तू,
तू महामृदुल, तू महाभयंकर.
तू सहजरूप, दुर्बोध अभयंकर.
तू ही पोषक, तू शोषक है
तू प्रलयरूप, तू परमगुप्त,
तू दाता है, तू परम दानी
सर्वस्व लुटा क्यों बने मसानी?
यह मानव है तेरी प्यारी रचना
इसने सीखा केवल संचय करना,
एक लुटिया जल के बदले
चाहत कुबेर सा बन जाना.
तुम भी दे देते जाने क्यों?
इंसान जो मांगे है तुझसे?
क्या तरस नहीं आती तुझको?
क्यों भ्रम में उसे फंसाते हो?
वह तो बटोरता कंकड़-पत्थर
हीरे - मोती वह कहता है,
वह हंसता उसको निरख परख
तू बुद्धि पर उसके हंसता है.
कैसा तू खेल दिखाता है?
कैसी तेरी यह माया है?
देते क्यों दिव्य दृष्टि नहीं?
क्यों दौलत में उसे फंसाते हो?
अब नहीं हैं हम फंसनेवाले,
देखो बन गए पूरे मतवाले
अब हमको आती लाज नहीं
दिल लुटा बने हैं - 'दिलवाले'.