समाजशास्त्रीय चाक पर चढ़कर
अनुभवों अनुभूतियों की आंच में पककर
धारण करता है- 'शब्द का रूप'.
शब्दों से काव्य शिल्पी अपने अंतर के
चिंतन, स्फुरण, गुंजन और नर्तन को
करता है मूर्तमान भाव सम्प्रेषण द्वारा।
ये विपुलशब्द सम्प्रेक्ष्ण ही
कहलाते हैं - 'काव्य और साहित्य'.
शब्द यदि ज्यामितीय की भांति
स्पष्ट और निर्भ्रांत है तो
मूर्ति की भांति रहस्य्मयी और गूढ़तर भी.
साहित्य की सम्यक समझ के लिए
करना पड़ता है -'शब्दार्थों का संधान '.
व्याख्याओं का विशिष्ट विधान.
क्योंकि यही शब्द अन्य अर्थों से अलग
नए परिप्रेक्ष्य में , नवीन अर्थ स्फुरण में भी
होते हैं दक्ष, सर्वदा समर्थ।
ये कुलांचे भी मारते हैं -
कला से विज्ञान और प्रकृति तक
विज्ञानं से नीरा लोक संस्कृति तक।
डॉ जयप्रकाश तिवारी