Wednesday, April 13, 2011

बड़ा कौन-'ज्ञान' या 'परिकल्पना'?


ज्ञान बड़ा है या परिकल्पना?
बोध बड़ा है या कोई संरचना?
अस्तित्व बड़ा या है संरचना?
विचार बड़ा है या कोई रचना?

ज्ञान है; विज्ञान और बोध द्वारा
परीक्षित - प्रमाणित एक नाम.
और स्वयं विज्ञान क्या है?
परिकल्पनाओं का परीक्षण.
और क्या? तथा अस्तित्व है -
इन्हीं मापकों का मापन.
प्रमाणों को भी 
प्रमाणित करनेवाला प्रमाण.

और दृश्यमान यह कृत्रिम संरचना?
यह है विज्ञान का लाडला पुत्र,
'तकनीक', जिसके एक हाथ में 
है -'ध्वंस' और दूसरे में 'सृजन'.

'विज्ञान' ज्ञानरूप में तो है -
निश्छल - निर्वैर और निस्पृह.
परन्तु तकनीक रूप में भयावह.
उसके ट्रिगर और बटन पर
है शासन संकल्प और 
परिकल्पनारूपी उँगलियों का.

परिकल्पना, जिसके मूल में है
एक चाहत, जो होता है विकसित
आचार से, संस्कार से, विचार से.
कि वह विश्व पर करना चाहता है 
शासन या बनता है विश्वामित्र.
भाई को समझता है शत्रु या मित्र.   

विज्ञान तो है बूढा - लाचार,
थमा दी है उसने अपनी
मशाल बन्दर के हाथ में.
और बन्दर जिसका अपना 
कोई घर नहीं होता.. जब भी 
जलाएगा दूसरे का ही छप्पर.
श्रम-श्वेद से निर्मित कुटिया.
किन्तु बन्दर को इससे लेना क्या,
डूबे जिस भी गरीब की लुटिया.

विज्ञान मौन है,
तकनीक अश्वत्थामा रूपी 
विज्ञान का वह ब्रह्मास्त्र है 
जिसे छोड़ा तो जा सकता है
परन्तु लौटाया नहीं जा सकता.

तो कौन संभालेगा-
विज्ञान के इस बिगडैल पुत्र को?
अरे वही जिसने मोड़ी था दिशा,
अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र का -'कृष्ण'.
आज वही मोड़ेगा विज्ञान के 
इस बिगडैल के अस्त्र को.
आज का कृष्ण है -
'नैतिकता' और 'इंसानियत'.
'मानवता', 'दिव्यमानव' की 
संकल्पना और परिकल्पना.

हाँ, परिकल्पना जो है देन,
चिन्तक और चिंतन की.
दार्शनिक और दर्शन की.
यह चिंतन ही बन जाता है -
आवश्यक परीक्षण के पश्चात 
एक सुनिश्चित ज्ञान, विज्ञान.

हां, परिकल्पना ही है -
सदियों पहले, ज्ञान और विज्ञान के,
मध्य में भी है, ज्ञान और विज्ञान के,
है पश्चात भी, ज्ञान और विज्ञान के.
यह परिकल्पना ही खेल है
उस निर्गुण - निराकार का भी,
जो खेलता है खेल, करता है लीला;
धारण कर विविधरूप सगुण-सरूप का.