'प्रेम' सरस- सर्वत्र - सनातन,
सागर कलोल यह करता है.
जो होता जितना संवेदी,
उर उतना उसके रहता है.
जिसे समझते हो निजी संपत्ति,
वह तो भ्रम है, एक धोखा है,
सहित जिससे, अभिसिंचित वह,
रहित उससे, रेत सम सूखा है.
अभिव्यक्त वहीँ होता है यह,
जहाँ क्षमता धारणशीलता की.
ये तो निर्मल हैं, दिव्य तरंगें है,
नहीं इसमें कहीं कुछ क्षुद्रता सी.
बन जाता व्यक्ति जो क्षुद्र/महान,
वह पात्र की मिजी पात्रता है.
टिक पाती कितनी अवधि तक,
है संवेदना, नहीं स्वतन्त्रता है.
जब बात स्वतन्त्रता की आयी,
मानव करता है प्रायः दुरुपयोग.
कुछ ही होते इतने सुलझे,
जो करते इसका सदुपयोग.
सदुपयोग इसे जो करते हैं,
अलौकिक रूप विचरते हैं.
नहीं मानते अनुचित नियम,
वे तो धार में प्रेम के बहते हैं.
जो धार प्रेम की बहता है,
वह सृजन कार्य को करता है.
प्रेम तो है स्वभाव से योजक,
ध्वंश नहीं वह करता है.