Sunday, January 22, 2012

प्रेम तो निर्मल दिव्य तरंग है.


'प्रेम' सरस- सर्वत्र - सनातन,
सागर कलोल यह करता है.
जो होता जितना संवेदी,
उर उतना उसके रहता है.

जिसे समझते हो निजी संपत्ति,
वह तो भ्रम है, एक धोखा है,
सहित जिससे, अभिसिंचित वह,
रहित उससे, रेत सम सूखा है.

अभिव्यक्त वहीँ होता है यह,
जहाँ क्षमता धारणशीलता की.
ये तो निर्मल हैं, दिव्य तरंगें है,
नहीं इसमें कहीं कुछ क्षुद्रता सी.

बन जाता व्यक्ति जो क्षुद्र/महान,
वह पात्र की मिजी पात्रता है.
टिक पाती कितनी अवधि तक,
है संवेदना, नहीं स्वतन्त्रता है.

जब बात स्वतन्त्रता की आयी,
मानव करता है प्रायः दुरुपयोग.
कुछ ही होते इतने सुलझे,
जो करते इसका सदुपयोग.

सदुपयोग इसे जो करते हैं,
अलौकिक रूप विचरते हैं.
नहीं मानते अनुचित नियम,
वे तो धार में प्रेम के बहते हैं.

जो धार प्रेम की बहता है,
वह सृजन कार्य को करता है.
प्रेम तो है स्वभाव से योजक,
ध्वंश नहीं वह करता है.

बात शब्द संयोजन की

होता हर 'शब्द' अ-नाम गुमनाम, 
देता है - 'अर्थ' और 'भावार्थ' ही
उसे जाना पहचाना विशिष्ट नाम.
निश्चित एक रूप-स्वरुप-पहचान.

ये संयुक्त और विलग हैं कैसे?
अर्द्धनारीश्वर, शिवशक्ति हैं जैसे.
ऊर्जा  और  पदार्थ  हैं  जैसे.
एक सिक्के के दो पहलू जैसे.

शब्दों का सम्प्रेषण तो 
होता है अदृश्य अरूप.
भाव बोध दिलाते उसे संज्ञा 
गद्य का, पद्य का, हास्य का
श्रृंगार - वियोग - वीरता का,
करुणा - विभत्स या रौद्र का.

शब्दों की अपनी मर्यादा 
और उनकी उपयोगिता ही, 
बढ़ाती और घटाती है,
व्यक्ति मान और सम्मान.
मिलती है उसी से -'जंजीर',
सोने की भी, लोहे की भी.

शब्द संयोजन, और 
गरिमामय प्रस्तुति ही,
किसी ग्रन्थ को महनीय 
और पूजनीय बना जाता,
किसी को नदी - नाले में,
जाने का कारण बन जाता.

शब्द तो हैं - अनमोल, 
अमूल्य, ह्रदय कोश आगार.
जब भी निकले यह मुख के द्वार , 
कर लो फिर पुनः - पुनः  विचार.
हो संगृहीत अर्थ, उसमे बस इतना,
हो आवश्यकता उनकी जब जितना.