हरे पत्तों और मुलायम घास की खोज में अपनी ही धुन में अलमस्त बकरी, गाते-गुनगुनाते निकल गयी थी, दूर तक जंगल में. तभी कुछ आहट पाकर जब सिर उठाया, तो सामने भेडिए को खडा पाया. सकपकाई - घबराई बकरी मौत को सन्निकट पाकर, वात्सल्य के नाम पर सदा की भांति मिमियाई .....युवराज! मेमने भूखे होंगे, हमें तनिक समय चाहिए, उन्हें भर पेट निहारने का, दुलारने का, मातृत्व लुटाने का. फिर लौट आउंगी, आपकी छुधातृप्ति के लिए, सच कहती हूँ.....भेडियाने एक विजेता की तरह अपनी आँखों को नचाया, मन ही मन मुस्कुराया, मूंछों को ऊपर-नीचे घुमाया, दो-चार बूंद लार टपकाया और अभयदान दे दिया बकरी को, .....जाओ ऐश करो ! .. मेरे पुरखे बुद्धू थे जो बकरी को ग्रास बनाते थे. मैंने बकरी खाना छोड़ दिया और तुझे अभयदान दिया. जाओ दीर्घाय हो ! फूलो - फलो !! गांधारी की तरह शत - शत बलशाली पुत्रों की माता बनो.
बकरी हैरान थी, इस अद्भुत परिवर्तन को देखकर परेशान थी, भावातिरेक में बोल पड़ी - आप महान है ! आप तो संत हैं - युवराज ! संत हैं, महासंत हैं !! जय हो ! जय हो !! जंगल ने आजादी के बासठ साल बाद गांधी - दर्शन को अपनाया है; अब तो नाचने - गाने - मुस्कराने का मंगल अवसर पहली बार आया है.
अरे बुद्धू ! ........गांधीवाद को तो उनके अनुयाइयों ने ही नहीं अपनाया, और गांधीगिरी मुन्ना भाई को ही मुबारक हो .... हम भी प्रगतिशील है -.... दिल्ली - नोयडा घूमकर आये है, इसलिए हमने गौतम, महाबीर और गांधी का नहीं; .निठारी के सिद्धांत को अपनाया है, और इसके लिए; पंढेर और कोली को अपना आदर्श बनाया है.
अरे महामूर्ख !! ..अब भी नहीं समझी, अरे! तू जिसे दूध पिलाना चाहती है; जिसपर मातृत्व और ममत्व लुटाना चाहती है, वह तो न जाने कब से.... मेरे गहरे उदर में समाया है. माँ के गोश्त से स्वादिष्ट गोश्त बच्चे का होता है, ..यह बात जंगली जानवर को मानव की नई सभ्यता ने सिखाया है.
कुछ क्षण रुक कर भेड़िया पुन: बोला .....मत कहो मुझे युवराज और मत कहो मुझे संत. ये विशेषण हैं इंसानों के लिए, नहीं है उसकी बुद्धि का अंत. वे मानव हैं - मानवता छोड़ सकते हैं, वादे तोड़ सकते हैं...स्वधर्म - राजधर्म भूल सकते हैं, दोस्ती तोड़ सकते हैं, कभी देव, कभी दानव, तो कभी संत-महंथ और न जाने क्या-क्या बन सकते हैं. परन्तु हम तो जंगली है, जानवर हैं, पशु हैं, हिंसक है, कैसे छोड़ दे - पाशविकता? फिर भी उनसे अच्छे है, जंगली और हिंसक होते हुए भी, वादे निभाते हैं, पेट भरने के बाद, नहीं करते दूसरा शिकार. बचा खुचा शिकार औरों के लिए छोड़ जातें हैं. परन्तु देखो यह इंसान कितना अजीब है, जूठन भी फ्रिज में रखता है, वह केवल पेट नहीं, फ्रिज और गोदाम भरता है. ..कहीं कोई भूखा मरता है तो कहीं अन्न सड़ता रहता है. बहना ! सच कहूँ तो मैं भी पहले ऐसा नहीं था ......मुझे मक्कार तो मानव की नई सभ्यता ने बनाया है.