Wednesday, August 1, 2012

शब्द सृजन की वेला


होती है जब मन में हलचल
हिलोर तरंग जब लेती है.
भाषा के रूप में बाहर आ वह
लिपि के रूप झलकती है.

तरंगे कुछ फंस भवर जाल में
मन के अन्दर ही घुमड़ती हैं,
जो चंचला हैं, प्रतीक रूप में
अंगों से भी, वे छलकती हैं.

हैं सभी रूप, कविता के ये
यह जीवन भी एक कविता है,
इस धरा पर जितनी कवितायें
सर्जक उसका यह सविता है.

सविता का रूप प्रखर तेजस्वी
रश्मियाँ हैं उसकी बड़ी ऊर्जस्वी,
उलटी बात वह नहीं मानता
जगत को उसका मजा चखाता  .

ऐसे ही बहती है यह कविता
यह आह - वाह का संगम है,
पढ़लो रचलो चाहे जो कविता
क्या गम? जब है यह सविता.


                                      डॉ. जयप्रकाश तिवारी