दिवस बीते है आस में तेरी
और रजनी बीती यादों में,
सुभह दोपहरी शाम भी बीती
जो बचा गया फरियादों में.
वादों पर तेरे विश्वास किया
वादों ने बहुत निराश किया.
तूने तोड़े वादे अनेक बार
पर टूटी आस न एक बार.
इस आस में उपहास क्यों है?
इस आस में परिहास क्यों है?
इस आस में जो हास है
वह हास आज उदास क्यों है?
इस हास पर यह बंधन क्यों?
दीखता नहीं अब स्पंदन क्यों?
तेरी आस दे गयी वेदना क्यों?
खो गयी सारी संवेदना क्यों?
औरों के गम से भी कभी
ग़मगीन हो जाता था जो,
अपनों के दर्द को आज वह
अनुभूत क्यों करता नहीं?
- डॉ. जयप्रकाश तिवारी