जिन्होंने
दीपक की परंपरा संभाली,.
अपनी 'नयी लौ' बना ली.
यह कुछ की समझ में आया,
कुछ की समझ में नहीं आया.
लेकिन..
उज्ज्वल-धवल प्रकाश,
वहाँ अँधेरी गलियों में,
तब भी भरपूर था,
और अब भी भरपूर है.
पता नहीं -
यह कौन आ गया,
दिल को टटोलने?
डूबी बत्ती निकाली,
लौ को लौ से सटा दी.
फिर तो दीपक और
चिराग, जले तो खूब जले.
बस्ती के गलियारे से
मंदिर तक की राह
और भी रोशन हो गयी.
कहनेवालों ने कहा -
अरे वाह!
आज तो दीवाली आ गयी.
सुना दीपक ने, अधर हिले,
होठ मुस्कराए, कपोलों पर
उसके लालिमा सी छा गयी.